बदलते परिवेश में "गोदान"

Gaurav Bharti

Gaurav Bharti

17 May 2018 · 11 min read

बदलते परिवेश में ‘गोदान’ 

            प्रेमचंद कृत ‘गोदान’ किसान जीवन की समस्याओं के बहाने ग्रामीण जीवन में पैबस्त सामंती मूल्यों को चित्रित करनेवाला कालजयी उपन्यास है | यह एक ऐसा उपन्यास है जिसमें केवल अपने समय एवं समाज का यथावत चित्र ही मौजूद नहीं है बल्कि आज के बदलते परिवेश तक भी इसके कथ्य की व्याप्ति-विस्तार है | किसी भी कृति की सफलता का श्रेय उसके कालजयी होने में निहित है और ‘गोदान’ की प्रासंगिकता इसके कालजयी होने का पुख्ता सबूत है |

            आज भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों के बदलते परिवेश को लक्ष्य किया जा सकता है | आज के बाजारवाद, उपभोक्तावादी संस्कृति, पूंजीवादी व्यवस्था का प्रभाव भारतीय ग्रामीण अंचलों में आसानी से देखा जा सकता है | ग्रामीण अंचल सम्बन्धित तमाम विकास कागजी रपटों में तो शामिल है लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है | ग्रामीण क्षेत्रों का दमनचक्र दरोगा–कारिंदों, मुखिया-सरपंच, आदि के संत्रास, भय, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, अशिक्षा आदि रूपों में आज भी व्याप्त है | आज भारत में राष्ट्रवाद एक ऐसा मुद्दा है जिसके आगे किसानों की समस्या सरीखे मुद्दे घुटने टेक देते हैं | आज जिस समावेशी विकास का गुणगान हो रहा है वह कैसा विकास है ? होरी जैसा किसान जिसकी जिजीविषा आज से अस्सी वर्ष पहले तमाम शोषण और संघर्ष के बावज़ूद देखने लायक है , क्या कारण है कि वही किसान आज आत्महत्या करने को मजबूर है | लाखों किसानों की आत्महत्या महज पारिवारिक कलह का कारण नहीं हो सकती |

             हिंदी उपन्यास लेखन के इस दौर में भी जब किसान जीवन से संबंधित उपन्यासों का जिक्र आता है हम ‘गोदान’ से आगे नहीं बढ़ पाते | हमें होरी जैसा चरित्र अन्यत्र नहीं मिलता | आज के बदलते परिवेश में जहाँ स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और आदिवासी विमर्श ने साहित्यिक मंच पर अपना स्वर बुलंद किया है वैसे में ‘गोदान’ का पाठ हमें अपनी ओर खींचता है | जिसके अन्तः प्रसंगों में इन विमर्शो की गूंज सुनाई देती है | ऐसे में ‘गोदान’ महज किसान जीवन की महागाथा नहीं रह जाता | गौरतलब है कि होरी की यंत्रणा का कारण सिर्फ कर्ज की समस्या नहीं है जैसा कि डॉ. रामविलास शर्मा लिखते है “प्रेमचन्द ने जब ‘गोदान’ लिखा था, तब वह खुद भी कर्ज के बोझ से दबे हुए थे | ‘गोदान’ की मूल समस्या ऋण की समस्या है | इस उपन्यास में किसानों के साथ मानो वह आपबीती भी कह रहे थे |”[1] बल्कि औपनिवेशिक शासन, उभरते पूंजीवाद, हिन्दू धर्म की वर्णवादी व्यवस्था, साहूकारी व्यवस्था आदि के सम्मुचय में है | गौरतलब है कि प्रेमचंद होरी जैसे किसानों की समस्याओं को औपनिवेशिक समस्याओं तक ही केन्द्रित नहीं करते बल्कि भारतीय ग्रामीण समाज में व्याप्त उस शोषण चक्र को भी उद्घाटित करते है जिसकी लगाम रायसाहब, दातादीन , मातादीन, पटेश्वरी, मंगरू शाह, मिल मालिक खन्ना जैसे लोगों के हाथ में है | प्रेमचंद की दृष्टि को लक्ष्य करते हुए वीरेन्द्र यादव लिखते हैं “वे ‘गोदान’ में भारतीय समाज पर उस दुहरे उपनिवेशवादका विमर्श तैयार करते हैं, जिसका एक घेरा अंग्रेजी शासन सत्ता का था  तो दूसरा घेरा ब्राह्मणवादी सत्ता का |”[2] होरी की धर्मभीरुता भी उसके पतन का एक प्रमुख कारण है | होरी जैसा भारतीय किसान महाजनी शोषण, धार्मिक शोषण, पूंजीवादी शोषण, और वर्ग विसमता के जाल में फंसा छटपटाता रहता है | समाज की गली-सड़ी परम्पराओं और मर्यादाओं में जकड़ा वह इस क्रूर व्यवस्था के भीतर अपनी परिस्थिति को नियति मान लेता है | गौरतलब है कि जो धर्म होरी को कमजोर, नियतिवादी, शोषित बनाता है वही धर्म दातादीन जैसे लोगों को शोषक, प्रभुतासंपन्न, और नीति नियामक बनाता है | होरी की त्रासदी को लक्ष्य करते हुए वीरेन्द्र यादव सटीक लिखते हैं “होरी की त्रासदी के मूल में दो घटनाएँ हैं – एक है उसके द्वार पर खूँटे से बंधी गाय का मरना और दूसरा, बेटे गोबर द्वारा विधवा झुनियाँ को बिना ब्याह पत्नी के रूप में अपनाना | होरी इन दोनों ही घटनाओं के लिए जिम्मेदार नहीं है, लेकिन धर्म, बिरादरी, और मरजाद के खूँटे उस पर जुर्माना और डांड़ लगाकर पहले उसे कर्ज के दुष्चक्र में फँसाते हैं, फिर उसकी जमीन-जायदाद गिरवी रखकर उसे किसान से मजदूर बना देते हैं |[3] 

                                गौरतलब है कि धर्म और समाज आज भी व्यक्ति की वैधता को प्रमाणित करने वाले कारक माने जाते हैं | संवैधानिक वैधता आज भी ग्रामीण समाज और तथाकथित मध्यवर्गीय समाज के लिए उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं जितनी कि सामाजिक और धार्मिक वैधता | होरी भी इसी वैधता को आजीवन ‘लेबुल’ की तरह चिपकाए रहना चाहता है उसके लिए मरजाद बड़ी चीज है | होरी की धर्मभीरुता का एक उदाहरण द्रष्टव्य है “अगर ठाकुर या बनिए के रूपए होते, तो उसे ज्यादा चिन्ता न होती लेकिन ब्राह्मण के रूपए ! उसकी एक पाई भी दब गई, तो हड्डी तोड़कर निकलेगी|”[4] लेकिन होरी का बेटा गोबर इस ‘मरजाद’ की मिथ्या चेतना को ध्वस्त करता है और कहता है “जिसे पेट की रोटी मयस्सर नहीं, उसके लिए मरजाद और इज्जत सब ढोंग है |”[5] यह उद्घोष दूसरी पीढ़ी की है जो शोषण चक्र और मिथ्या मरजाद को अब और ढोना नहीं चाहता | उसे वह वैधता भी नहीं चाहिए जो उसे लाचार बनाये | शहरी वातावरण में रहने के कारण उसमें जिस चेतना का विकास हुआ है वह महत्वपूर्ण है | वहीँ मातादीन की यह घोषणा कि “मैं ब्राह्मण नहीं, चमार ही रहना चाहता हूँ | जो धरम पाले, वही ब्राह्मण है, जो धर्म से मुंह मोड़े वही चमार है |”[6] यह भी दातादीन की दूसरी पीढ़ी का उद्घोष है जो हिन्दू धर्म से मोहभंग की स्थिति को दर्शाता है | यहाँ पर प्रेमचंद आदर्शवादी जरूर हो जाते हैं लेकिन स्वस्थ समाज के विकास की दृष्टि से एक रचनाकार की यह दृष्टि सराहनीय है | 

            इन सब के बावजूद प्रेमचंद रुढियों में फँसे किसान के सरल, संघर्षमयी, आदर्श जीवन को शब्द देने में सफल हुए हैं | यही कारण है कि होरी जैसा चरित्र अपनी व्यापक मानवीय प्रवृत्ति के कारण कालजयी बन गया है | 

             ‘गोदान’ में प्रेम, दलित समस्याएँ, स्त्री समस्याएँ, यौन नैतिकता जैसे कई प्रसंग जो आज के समाज में भी कमोबेश उसी रूप में उपस्थित हैं | स्त्री-संबंधों में प्रेमचंद के कुछ पूर्वाग्रह जरुर रहें हैं किन्तु ‘गोदान’ तक आते-आते उनके स्त्री-पात्र क्रांतिकारी चेतना से परिपूर्ण दिखते हैं | मालती मध्यवर्ग की आधुनिक नारी है | वह घर की चौहद्दी को लांघकर विकास और प्रगति को उत्सुक है | उसका यह मुक्ति-बोध खन्ना एवं रायसाहब जैसे रसिकों को उसकी ओर खींचता है | उनके लिए वह वस्तु मात्र है | जो मात्र उसकी दैहिक मैत्री के आकांक्षी हैं | आज तमाम सामाजिक-आर्थिक स्वातंत्र्य के बावजूद स्त्री इस मानसिक त्रासदी से मुक्त नहीं हो पाई हैं | इस दृष्टि से मीनाक्षी का चरित्र आधुनिक होने के साथ-साथ क्रांतिकारी भी है | वह पुरुषवादी वर्चस्व को तोड़ती है साथ ही विवाह संस्था पर भी चोट करती है | उसका दिग्विजय सिंह के चंडाल चौकड़ी पर हंटर बरसाना पुरुषवादी मानसिकता पर चोट करने के सामान है | मेहता-मालती का संबंध, प्रेम में मैत्री भाव एकदम आधुनिक है | वहीँ कामिनी खन्ना का चरित्र पारंपरिक भारतीय स्त्री का संस्करण है | गोबर-झुनिया, मातादीन-सिलिया आदि प्रसंगों में लेखक ने यौन-नैतिकता एवं विवाहेतर संबंधों के नए त्रिकोण उभारा है जो समकालीन  मालूम होते हैं | इन संबंधों की तथाकथित परंपरागत नैतिकतावादी मानसिकता के कारण ही झुनिया एवं सिलिया को इतना प्रताड़ित होना पड़ता है | धनिया का चरित्र भी होरी की तरह ही स्मरणीय है | बकौल राजेन्द्र यादव “कृष्णा सोबती पर लिखते हुए मैंने इसी सूत्र को लिया था कि उनकी सारी कथा–यात्रा, औरत के वस्तु से प्राणी और व्यक्ति बनने की कहानी है | प्रेमचन्द उसे सिर्फ वस्तु से प्राणी तक ही ला पाए थे | उनके यहाँ बड़े घर की बेटी का आदर्श था | उनकी अधिकांश रचनाओं में ‘वस्तु के खोल’ से निकलकर प्राणी होने और उसे इस रूप में स्वीकार किये जाने का संघर्ष है |”[7] ध्यातव्य है कि धनिया का चरित्र ‘वस्तु से प्राणी’ बनने तक की यात्रा है |  उसकी व्यक्तिगत कामना कुछ नहीं है वह जो कुछ चाहती है वह उसके परिवार के लिए है और पारिवारिक बाधा के सामने वह दृढ़ता के साथ खड़ी होती है | यह दृढ़ता उसे उन संस्थाओं पर भी एक चोट करने को प्रेरित करती है जो उसके घर-गृहस्थी को उजाड़ने का काम करे | परम्परागत निष्ठा और सामंती संस्कारों से प्रेरित होने के बावजूद धनिया का विद्रोही चरित्र ग्रामीण क्षेत्रों के घरों में मौजूद मातृसत्ता को भी चित्रित करता है | दातादीन द्वारा गाँव से निकाले जाने की धमकी के बावजूद धनिया का अपने घर में सिलिया चमारिन को पनाह देना वर्ग पक्षधरता को रेखांकित करता है | 

  कहना न होगा कि दलित आक्रोश की प्रथम साहित्यिक अभिव्यक्ति हमें ‘गोदान’ में देखने को मिलती है | प्रेमचंद दलित आक्रोश को जिस तरह ‘कर्मभूमि’ में मंदिर-प्रवेश के माध्यम से दिखाते हैं वहां वह घटना एक आदर्श रूप लिए हुए है किन्तु ‘गोदान’ में आकर वह अत्यंत मुखर होकर न केवल वैचारिक स्तर पर अपितु प्रतिरोध का आक्रामक रूप धारण कर लेती है “दो चमारों ने लपककर मातादीन के हाथ पकड़ लिए, तीसरे ने झपटकर उसका जनेऊ तोड़ डाला और इसके पहले कि दातादीन और झिंगुरी सिंह अपनी-अपनी लाठी सँभाल सकें, दो चमारों ने मातादीन के मुँह में एक बड़ी-सी हड्डी का टुकड़ा डाल दिया |”[8] इस घटना के माध्यम से प्रेमचंद ने भारतीय समाज में दलितों की उस उभरती चेतना को साहित्यिक अभिव्यक्ति दी है जिसके पीछे अम्बेडकर के जाति उन्मूलक आंदलनों का प्रभाव देखा जा सकता है, जिस पर कम ही विचार हुआ है | 

           ‘गोदान’ में चित्रित शहरी जीवन की कथा को लेकर भी अक्सर वाद-विवाद चलता रहता है | लेकिन प्रेमचंद द्वारा लायी गयी शहरी कथा महत्वपूर्ण है जो ग्रामीण कथा के अन्तराल को भरती है साथ ही उसकी महाकाव्यात्मकता को प्रमाणित करती है | गौरतलब है कि शहरी पात्र का किसी न किसी रूप में रायसाहब से संबंध है, चाहे वह एक-दूसरे के स्वार्थ को ही पूरा क्यों न करें | प्रेमचंद शहरी कथा के माध्यम से शहरी समाज की विषमता को स्पष्ट करने के साथ-साथ शोषण के उस रूप को भी अभिव्यक्ति देते हैं जो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के उभार के फलस्वरूप विकसित हो रही थी | अवसरवादिता, चाटुकारिता, भ्रष्टाचार आदि का यथार्थ रूप यहाँ पर देखा जा सकता है जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है | मिर्जा खुर्शेद(चाटुकार), ओंकारनाथ(अवसरवादी पत्रकार), मि. खन्ना(भ्रष्टाचार में लिप्त मिल मालिक) जैसे पात्र आज भी हमें सत्ता-केंद्र के इर्द-गिर्द मक्खियों की तरह भिनभिनाते हुए मिल जाते हैं | ग्रामीण और शहरी कथा के माध्यम से प्रेमचंद ने शोषण के दो ध्रुवों को पहचानने की सफल कोशिश करते हैं | शहरी कथा जहाँ शोषण के अर्थ और राजनीति केन्द्रित ध्रुवों को चित्रित करता है वहीँ शोषण का ग्रामीण स्वरुप धर्म और कतिपय अर्थ केन्द्रित है |

                ‘गोदान’ का अंत होरी के संघर्ष के अंत के साथ होता है | गौरतलब है कि इस उपन्यास का अंत प्रेमचंद के अन्य उपन्यासों से इस दृष्टि में भिन्न है कि यहाँ पर प्रेमचंद कोई समाधान नहीं देते | अंत द्रष्टव्य है “धनिया यन्त्र की भांति उठी, आज जो सुतली बेची थी, उसके बीस आने पैसे लायी और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली – महाराज, घर में गाय है, न बछिया, न पैसा | यही पैसे हैं, यही इनका गो-दान है | और पछाड़ खाकर गिर पड़ी |”[9] कहना न होगा कि यह गो-दान थोपा गया वह संस्कार है जिसे प्रेमचंद कतई स्वीकार करना नहीं चाहते होंगे | यहाँ पर धनिया का तेवर इन्हीं विचारों की ओर दृष्टिपात है | निर्मल वर्मा ‘गोदान’ को लेकर जिस तरह की आध्यात्मिक व्याख्या करते हैं और प्रेमचंद पर भी इस दृष्टि का आरोपण करते हैं वह निश्चित तौर पर कहीं से भी विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता है | निर्मल वर्मा गाय का जिस तरह से मिथकीकरण और प्रतीकात्मक सन्दर्भ तलाशते हैं वह अप्रासंगिक ही है | क्योंकि मेरे ख्याल से ‘गाय’ होरी के लिए ‘मरजाद’ का प्रश्न है और साथ ही एक किसान के अर्थ का एक साधन भी है जिसकी पुष्टि यहाँ हो जाती है “होरी सचमुच आपे में न था | गऊ उसके लिए केवल भक्ति और श्रद्धा की वस्तु नहीं, सजीव सम्पत्ति भी थी | वह उससे अपने द्वार की शोभा और अपने घर का गौरव बढ़ाना चाहता था |”[10] गाय को जिस तरह हिन्दू धर्म की बपौती समझा जाने लगा है और जिस तरह उसे प्रतीक में ढाला जा रहा है वैसे में निर्मल वर्मा सरीखे आलोचकों से ऐसी ही व्याख्या की उम्मीद की जा सकती है |

               आज हम कहने को उत्तर-आधुनिक दौर से गुजर रहें हैं | साम्राज्यवादी ताकतें पूंजीवादी सभ्यता और बाज़ार के माध्यम से अपना पैर पसार चुकी हैं | ऐसे बदले हुए परिवेश में ‘गोदान’ की प्रासंगिकता प्रेमचंद की दूरदर्शिता के कारण आज भी बनी हुयी है | शहरी कथा के माध्यम से प्रेमचंद पूंजीवादी सभ्यता के उभार को चित्रित करते हुए नजर आते हैं | मनुष्य के विकल्प के तौर पर आए मशीनों का विरोध वह करते हैं इस दृष्टि से वे गाँधीवादी विचारधारा के करीब नजर आते हैं | उल्लेखनीय है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का मूलाधार कृषि होने के कारण साठ-सत्तर प्रतिशत आबादी की आजीविका इसी पर निर्भर करती है | कहने को नाबार्ड, सहकारिता बैंक आदि जैसी संस्थाएं किसान समस्या के उन्मूलन के लिए कार्यरत हैं, विभिन्न तरह की योजनाएं चलाई जा रही हैं, लेकिन इन सब की कार्यप्रणाली कितनी सफल है वह किसी से छुपी नहीं है | लाखों किसान आए दिन आत्महत्या करने को मजबूर हो रहें हैं यह उस समावेशी विकास को कठघरे में खड़ा करती है जिसकी हिमायती हमारी सरकारें हैं | सरकार द्वारा स्थापित आर्थिक सहायताओं की कागजी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि साहूकारों वाली व्यवस्था ही किसानों को सुगम लगती है और अंततः वह फिर उसी कुचक्र में फँस जाता है | ‘प्रत्यक्ष विदेशी निवेश’ को जिस तरह से हमारी सरकारें सराह रही हैं ऐसे में इन किसानों की आर्थिक स्थिति और भी दयनीय हो गई है | गोबर जैसे किरदारों की संख्या अब लाखों में है जो तथाकथित संभ्रांत शहरों में हाशिए पर जीने को विवश हैं | ‘पीपली लाइव’ जैसी फिल्म और ‘फाँस’ जैसे उपन्यास किसान जीवन की उन समस्याओं को पकड़ने की कोशिश करते हुए नजर आते हैं जो आज के बदलते परिवेश की देन हैं साथ ही, यह ‘गोदान’ की उत्तर-कथा को कहते हुए नजर आते हैं | 

               आज प्रश्न यह उठता है कि भारत में तथाकथित राष्ट्रवाद और गाय जैसे धार्मिक प्रतीकों को लेकर जिस तरह से लोग लामबंद हो जाते हैं, किसान जीवन की समस्याओं एवं कृषि उत्पादों के संरक्षण के साथ ही उसके उचित मूल्य न मिल पाने को लेकर लामबंद क्यों नहीं होते ? बहुत बड़ा सवाल है, जिसको लेकर गंभीरता से सोचने की जरुरत है |


 सन्दर्भ:-

[1] .प्रेमचन्द और उनका युग, डॉ. रामविलास शर्मा, पृष्ठ संख्या – 96, राजकमल प्रकाशन, पेपरबैक संस्करण -2014

[2] .उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, वीरेन्द्र यादव, पृष्ठ संख्या – 32, राजकमल प्रकाशन, पेपरबैक संस्करण - 2017

[3] उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, वीरेन्द्र यादव, पृष्ठ संख्या – 33, राजकमल प्रकाशन, पेपरबैक संस्करण - 2017

[4] गोदान, प्रेमचंद, अनीता प्रकाशन, पृष्ठ संख्या -183 , पेपरबैक संस्करण – 2014, नई सड़क ,दिल्ली 

[5] गोदान, प्रेमचंद, अनीता प्रकाशन, पृष्ठ संख्या - 295 , पेपरबैक संस्करण – 2014, नई सड़क ,दिल्ली

[6]. गोदान, प्रेमचंद, अनीता प्रकाशन, पृष्ठ संख्या - 288 , पेपरबैक संस्करण – 2014, नई सड़क ,दिल्ली

[7]. आदमी की निगाह में औरत, राजेन्द्र यादव, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या-23, संस्करण -2010 

[8]. गोदान, प्रेमचंद, अनीता प्रकाशन, पृष्ठ संख्या - 207, पेपरबैक संस्करण – 2014, नई सड़क ,दिल्ली

[9]. गोदान, प्रेमचंद, अनीता प्रकाशन, पृष्ठ संख्या - 300, पेपरबैक संस्करण – 2014, नई सड़क ,दिल्ली

[10]. गोदान, प्रेमचंद, अनीता प्रकाशन, पृष्ठ संख्या -33, पेपरबैक संस्करण – 2014, नई सड़क ,दिल्ली



गौरव भारती 

शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र

जवारलाल नेहरू विश्वविद्यालय

मोबाईल नंबर – 9015326408

ईमेल आईडी – sam.gaurav013@gmail.com

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