पद्मावत या पद्मावती

काकी हमारी क़माल की किस्सागो थी,जब भी कोई कहानी सुनाती आँखों में दृश्य कोंध जाते थे और हम बच्चे अवधी में देश और दुनिया के तमाम किस्से सुनते नहीं थे काकी के आँखों से देखते थे।

बचपन में काकी के ही शब्दों में देखा था महारानी पद्मावती का जौहर,गोरा और बादल के शौर्य की गाथा,सिंघल की राजकुमारी का अद्भुत रूप,महारानी नागमती का अपने पति के लिए किया गया त्याग,वो कम्बख्त तोता "हीरामन" जिसने रूप का वर्णन ऐसा किया पद्मावती के कि जिसने सुना मोहित हो गया।
शर्मसार एक ब्राह्मण के कृत्य पर भी उन्हीं शब्दों के चित्र पर हुए।
और अंत ये सुन के "अय बिटिया" अतिका कौनो भला न,न रूप न ख़िलजी के ताकत न,न राणा के प्रेम,न ज़िद".....
ये थी महारानी "पद्मावती" जी शताब्दियों बाद भी जायसी के ग्रंथ से निकल कर हमारे तक आई थी।

पिछले कुछ महीनों से अचानक से "पद्मावती" फ़िर चर्चा में आई(वैसे उन्हें भूला कौन था?)संजय लीला भंसाली जब शूटिंग करने चले इसी नाम की फ़िल्म का तब। संजय की बनाई फ़िल्मों के कभी बड़े दिवाने होते थे हम। तब,जब वो 'हम दिल दे चुके सनम' या 'ख़ामोशी' बनाये थे।तब भव्य सेट,उम्दा कलाकार,बेहतरीन संगीत,एक अलग दुनिया में पहुँचता हुआ सा जादूगर थे तबतक,संजय 'गुज़ारिश' तक में।

लेकिन जब उन्होंने 'देवदास' को कृत्रिम रूप से भव्य बना दिया दृश्यों को बदलकर कहानी को ही ड्रामेटिक करने के चक्कर में,उस वक्त़ लगा ये चितेरा बहुत जिद्दी है।हर रूप को भव्य दिखाने को आतुर।
बाजीराव मस्तानी देखी,फ़िर बाजीराव बदले से लगे। एकदम फ़िल्मी उस वक्त़ निर्णय लिया कि इस आदमी की बनाई फ़िल्में देखनी हो तो,इसकी ही आँखों से देखनी होगी इसलिए ऐतिहासिक फ़िल्में अब न देखनी कमसे कम इनकी बनाई हुई।

इस इरादे को मज़बूत ही रखती अगर फ़िल्म को लेकर इतना बवाल न मचता,इस फ़िल्म को देखने का मक़सद साफ़ था अपने-अपने तईं अभिव्यक्ति की आज़ादी को बचाना किसी भी तालिबानी फ़रमान से,बाकी तो पता था जिद्दी भंसाली भी है।नाम और कुछ दृश्य को छोड़ पूरी कहानी खुद लिखेंगे,तो कल दो ज़िद्दी टकराये एक साथ। एक जिसे बदलाव ज़रा पसन्द नहीं,कुछ कहानियों किरदारों में।और दूसरा जो मनमर्ज़ी करता है हर कहानी और किरदारों के संग।

भंसाली की पद्मावत(पद्मावती)बहुत खूबसूरत है,वाकई जब जंगल में दीपिका नज़र आती हैं हिरन का शिकार करते उस वक़्त उस सादगी,उस खूबसूरती का कौन न शिकार हो जाये।सिंघल के मोती सी नायाब नायिका हल्के रंग के जोड़े में खुद मोती लगती हैं।"शाहिद" जाने क्यों शाहिद ही नज़र आते हैं,शायद शब्दों में और फ़िल्मों में राजपूत राणा हमेशा लम्बे-ऊंचे आन-बान के साथ इसी रूप में मन के कोने बसे हैं इसलिए।
हाँ एक सम्मानित प्रेमी एक निष्ठ राजा के रोल में बुरे नहीं शाहिद,लेकिन "शाहिद" शाहिद ही रहे।
दीपिका पहले दृश्य से ही राजकुमारी रहीं,जो जब चलती हैं मुस्कुराती हैं छत्राणी के तरह घाव ताज़ा कर अनूठे ढंग से प्रेम निवेदन करती हैं।मारवाड़ की महारानी बनते ही उस राजकुमारी के पहनावे और ज़बान तक पर असर हुआ और वो भी क़माल के दृश्य हैं।

मुझे फ़िल्म में "रणवीर" बस एक बार रणवीर नज़र आये जब वो "खलिबली"गाने पर नाच रहे थे।वीभत्स रस प्रेम के नग़मे गाते हुए।
बाक़ी पूरे फ़िल्म में इस लड़के को ढूंढती रही लेकिन वो न था,हाँ इतिहास में दर्ज़ एक क्रूर शासक 'ख़िलजी' को और भी क्रूर रूप में दर्शाता हुआ,अलाऊद्दीन था ज़रूर।जिसे क्रूर दिखाने के सारे हथकंडे अपनाये गए थे।
जो जीत कर भी सिकन्दर न बन सका,पदमावती के चिता के,राख़ के नीचे उसकी सारी हेकड़ी दब गई।
ये वो दृश्य जो अच्छे लगे।

जो देख दुःख हुआ वो एक राजपुरोहित के रूप में एक ब्राह्मण का द्रोह,अपमान के आग में जल कर पूरे मेवाड़ को भष्म करने की कुटील चेस्टा।
ख़ुसरो का छोटा सा रोल जिसमें अजीब तरह से डायलॉग डिलवरी और चाटूकारिता की गंध।
गोरा,बादल के अद्भुत शौर्य को कम-से-कम फिल्माना।
महारानी नागमती जैसी विदुषी को बस गहने के लिए रूठते और सौतन से डाह करते दिखाना।

बा-कमाल दृश्य जब महारानी पद्मावती पूरे रनिवास संग जोहर करती हैं उस लाल चुनर को देख उस दृश्य को देख,उस पल में चले जाना जैसा जब ये आत्महत्या नहीं गर्व और वीरता की निशानी थी।सती होना,दुश्मन के हाथ आने से बेहतर अग्नि में समा जाना।
एक पल को लगा जैसे वाघा बॉर्डर पर देशप्रेम हिलोरें मारता वहां के वायु में कुछ है।उसी तरह फ़िल्म के अंतिम द्दृश्य क़माल के।

पूरी फिल्म देखने के बाद सोचा क्यों मचा बवाल इस फ़िल्म में ?
इतनी महिमामंडन तो आल्हा गाते हुए नहीं सुनी राजपूताना शान की।जितनी इस फ़िल्म में हुई है।"ख़िलजी" को आतताई दिखाने की भी भरपूर कोशिश तो की ही गई है।जब वो अपनी ही हथेली काट अपने चेहरे पर खून पोत कर युद्ध की घोषणा करता है।जब वो पीठ पर वार करता है,जब उसके बाये गाल पर आँखों के नीचे आये चोटों को बार-बार फोकस करके दिखाया जाता है।

फिर खुद को समझाया शायद ज़रूरी था ये विरोध का ड्रामा भी।न तो, मैं ही न आती,"पद्मावत" देखने।और मेरे जैसे जाने कितने जिन्होंने सुनी हो जायसी के शब्दों से निकली पद्मावती को या महसूस किया हो सती माता के तेज को मेवाड़ में।
लेकिन हमसब गये देखा और एक फ़िल्म जिसे बेहतरीन तरीके से बनाया है इस किस्सागो ने,जिनका नाम संजय लीला भंसाली है।

*मेरी काकी से बेहतर नहीं है किस्सागोई में यह फिल्म।मेरे ज़ेहन में आज भी वो पद्मावती है जो काकी की ज़बानी दिखी वो आज भी सुरक्षित है।*

  Never miss a story from us, get weekly updates in your inbox.