गर्मी की छुट्टी आ रही है बच्चों की आँखों में अपने ननिहाल जाने के सपने पल रहे हैं,सारी सखियाँ अपने मायके जाने को खुशी-खुशी पहले से ही तैयारी करने में जुटी हैं।सारे बच्चे भी अपनी माँ के संग उनके बचपन के दिनों में लौटने को उत्सुक दिख रहे हैं।
लेकिन मैं नहीं जाना चाहती अपने बचपन के उस हरे भरे और आज के उजाड़ "कुल्टी" को।
मेरे बचपन का वो खूबसूरत सा शहर वक्त़ की कब्र में मर-खप गया है।
वो मेरे बचपने का शहर,मेरी ज़िन्दगी के सबसे बेहतरीन उन 20 सालों का गवाह हँसता,मुस्कराता,खेलता,कूदता मेरा शहर "कुल्टी"।
जिसने मुझे ज़िन्दगी दी,होश दिया,तरबीयत दी,प्यार दिया,लाड दिया दुलार दिया।
जिसने मेरी रगों में दौड़ते लहू को रवानी दी "वो शहर" अब मुझे किसी बन्द पडी़ घड़ी की तरह दिखाई देता है।उस घडी़ की तरह जिसे घड़ीसाज़ ने खुद पुर्जे़-पुर्जे़ खोलकर बिखेर दिया हो।निकाल कर फेंक दिया हो एक-एक पेंच और कर दिया हो बे-पुर्जा़ खोखला।
मेरा जन्म जब हुआ था "कुल्टी" शहर के इस भरे-पूरे परिवार में जो कि मेरा मयका है,तब ये शहर पूरी तरह से खुशहाल था।
अपने पूरे शबाब पर एशिया के पहले लौह इस्पात कारखाने के तमगे के साथ सीना ताने खडा़ हुआ था यह खुशहाल शहर,मगर आज अपने ताबूत में आखिरी कील ठोक बैठा है।
हरे-भरे पेड़,बंगाल का बेहतरीन गोल्फ-ग्राउंड,थियेटर,रविंद्रमंच,जादू घर,बर्फ़-कल,दुर्गा पूजा का मेला यानि हम बच्चों के लिये हमारी पूरी दुनिया।
कारखाने के आस-पास बने क्वाटर्स में बडे़-बडे़ अधिकारी,देशी-विदेशी कर्मचारी रहते थे,देश-दुनिया के लोगऔर कुछ पड़ोसी देश नेपाल के भी।जो भी सम्पदा "कुल्टी" के पास थी देने को,दिया उसने जी खोलकर।
बिल्कुल धरती की तरह,गंगा की तरह और एक माँ की तरह।
अफसोस लेने वालों ने लेने की तरह नहीं बल्कि लुटेरों की तरह छीना,नोचा,लूटा,खसोटा।
बाहरी थे ही,बाहरी की तरह ही गलत तरीके से इस्तेमाल किया मेरे बचपने के इस "कुल्टी" को।उन्होंने कभी सोचा भी नहीं कि वो "कुल्टी" की जगह अपना ही जड़ काट रहे हैं।वे बाहरी थे सभी,उनके लिये वो उनका घर नहीं,बस पैसा कमाने-बनाने का एक आसान स्थान था।पीढ़ियों के बाद भी उनकी न हुई थी "कुल्टी"।
कुल्टी की क़िस्मत ऐसी कि उसके गोद में पले-जन्मे बच्चे भी खुद को यू०पी०, बिहार या नेपाल के बाशिंदे ही खुदको मानते रहे।
"कुल्टी"इतनों के होते हुए भी संतान विहीन थी।गैरों के बच्चे,ना-ना सँपोले पालती "कुल्टी" विष-दंश से नीली पड़ती,मरती,उजड़ती,उखड़ती रही।
अपने ही कामगारों,दलालों,बाहूबलियों,लुटेरों,घोटालेबाजों के हाथों डूबता बरबाद होता रहा कुल्टी का कारखाना।धीरे-धीरे घाटा बढ़ता रहा,मरता रहा कारखाना।
कर्मचारी सोचते रहे कि 'ये तो गंगा है बहती रहेगी अनवरत हमने तो एक लोटा जल ही निकाला है अपने वतन यानि अपने घर के लिये,इसी सोच ने हाथों हाथ दोहन किया,खूब लूटा कुल्टी और कारखाना को।
एक-एक लोटे ने आखिरकार खाली ही कर दिया अमृत,चरमराता रहा कारखाना,सूखता रही नदी।थक-हारकर कर बैठ गई "कुल्टी" बन्द हो गया इस्को का कारखाना 1997 में। कहने को तो आज भी चल रहा है शायद अधमरा सा अपंग सा, पर हर बार मुझे लगता है जैसे कोमा में है ये।मेरे बचपन के इस शहर का तेवर मर चुका है।
उसकी यादें,आह मेरे बचपने का शहर "कुल्टी"।
अपनों के हाथों बनाई अर्थी पर अचेत पडा़ है मेरा बेजान शहर,उसे इस बेहोशी से उठा पाये,ऐसा कोई चमत्कार होता तो मुझे नहीं दिखता।कितना खूबसूरत था मेरा शहर,आज मुझे एक तस्वीर लेने को यदि कोई कहे तो लगता है उस मरते शहर को हरे बेलो के अर्थी पे खड़ा करने की कोशिश को कहाँ रखूँ मैं।तस्वीरों में लपेट के क्या लाऊँ क्या दिखाऊँ और क्या देखूँ।
मेरे वो बचपन की "कुल्टी" यादों में बहुत खूबसूरत है।वो शहर जो दौड़ता था कुलांचे भरता था खिलखिलाता था,आज भी यादों की इस पोटली में बंद है।मैं नहीं जाती छुट्टी में,अब अपने घर "कुल्टी"।बिना नीव के मकान और बिन खंबे की छत सा टिका है यह जरजर शहर,डर लगता है कहीं सर पर ही न गिर पडे़।बिना गरदन का शहर "भूत" और टेढे पाँव की "कुल्टी" चुडै़ल दिखती है।