कमाल की बात है न। सज़ा में भी सज़ा पाने वाले को प्रभावी पुरुष होने से ख़ुशी मिलती है। सज़ा में सहजता होती है। सज़ा में कोर्ट की गूँज होती है। जो देश भर में मीडिया और चैनल बनकर फैलती है। गूँज का असर इतना व्यापक होता है। रोके से भी नहीं रुकता। सीधे सबको बता देता है कि उम्र क़ैद की सज़ा हो गई है। इसी लिए सज़ा याफ़्ता इंसान सज़ा पर अब ज़्यादा रोना धोना नहीं करता । बल्कि अच्छे दिनों की तरह खुश रहकर उसका आशीर्वाद पाने के लिए उत्सुक रहता है।
सज़ा मुंसिफ को सुनने तक ही सज़ा रहती है। बाद उसके सज़ा खुशहाली में औपचारिक तौर पर परवर्तित हो जाती है। इधर सज़ा पाने वाले के अंदर हिम्मत और हौसले का संचार भरता है। उधर फैसला सुनाने वाले जज साहब की सुरक्षा बड़ा दी जाती है। देश में सज़ा भी बड़ी अद्धभुत चीज़ बनती जा रही है। सज़ा की सुनवाई से सज़ा पाने वाला मायूस नहीं होता। न हीं सज़ा का अपराधवोध करता है । उसके द्वारा अपने व्यग्तिगत ग़ुमान से क़ानून के हो चुके निर्णय के उपरांत अपने मानसिक फ़ैसले की गरमाहट में अच्छे दिनों की ठंडी ठंडी लस्सी पीते हुए जब यह कहा जाता है। चिंता की कोई बात नहीं है। जेल में कम रहूँगा। खुदा की कसम क़ानून की सज़ा के प्रावधान का पूरा व्यक्तितत्व निखरकर रह जाता है।
सज़ा जेल के अंदर भी घर का सुख देती है। स्वंम खाना बनाकर खाने का नया रुतवा क़ायम रखती है। सज़ा का हाल चाल और उसकी प्रतिष्ठा पर सज़ा का ज़ोर नहीं चलता। सज़ा में मज़ा ढूंढ़कर यूँ इस तरह जीना प्रारम्भ हो जाएगा । इसकी बड़े बड़े कानूनविदों तक को खबर न थी। अब तो सज़ा पाने वाला भी सज़ा समझकर सज़ा नहीं भोग रहा । उसको अच्छी तरह पता है कि हम सज़ा नहीं झेल रहे हैं। सज़ा को अपने मन मुताबिक़ जीने की कोशिश कर रहे हैं। सज़ा भी अपने आपमें चिंतित है कि हम करे तो क्या करें। प्रभावशाली लोग सज़ा पर उल्टा अपना प्रभाव डालकर सज़ा को इतनी शान से जी रहे हैं, कि सज़ा भी एक सज़ा लगने लगी है ।
आसिम अनमोल