
इब्नेबतूती - इस शब्द का कोई मतलब नहीं होता। इसलिए आप इसको अपनी मर्जी और जरूरत के हिसाब से कोई भी मतलब दे सकते हैं. कुछ सुंदर शब्द कभी भी शब्दकोश में जगह नहीं बना पाते। कुछ सुंदर लोग किसी कहानी का हिस्सा नहीं हो पाते। कुछ बातें किसी जगह दर्ज नहीं हो पाती। कुछ रास्ते मंजिले नहीं हो पाते। उन सभी अधूरी चीजों ,चिट्ठियों, बातों, मुलाकातों, भावनाओं, विचारों, लोगों के नाम एक नया शब्द गढ़ना पड़ा।
कभी कभी कोई किताब लेने के लिए एक वजह ही काफी होती है , इस किताब को खरीदने की वजह बना किताब पर माता जी के साथ लिखा लेखक का नाम। मुझे याद है एक मैच ,जिसमे सब भारतीय खिलाडी अपनी माँ के नाम की जर्सी पहन कर उतरे थे, खेल खिलाडी रहे थे लेकिन ऐसा लगा जैसे मैच मैंने जीत लिया हो।
भारतीय परिवेश में माओं को उनका हिस्सा मिलता ही कहाँ हैं ,अगर मिलता भी है तो कांट छाँटकर या एहसानो में लिपटकर। इनका बोझ कभी कभी इतना हो जाता है की वो आँखों के रास्ते किसी तकिये को भिगोकर या शावर के पानी को नमकीन बनाकर ही हल्का होता है।
यही गिनी चुनी चीज़े है जो सुकून दे देती है की देर से सही शुरुआत तो हो रही है।
बात करते हैं इब्नेबतूती की...
क्या आपने कभी सोचा है कि आपकी माँ कभी 20 साल की लड़की थी, नहीं ना लेकिन इब्नेबतूती जो कि दिव्य प्रकाश जी की नई किताब है वह माँ के अंदर छुपी उस 20 साल की लड़की से मिलवाती है।
इब्नेबतूती कहानी है शालू और उनके बेटे राघव की, शालू जो कि सरकारी नौकरी में है और राघव जो ग्रेजुएशन ख़त्म करके अमेरिका से डाटा साइंस में पोस्ट ग्रेजुएशन करना चाहता है। कहानी में एक और किरदार है निशा जो राघव की गर्लफ्रेंड है।
होशियार और मेहनती होने के कारण राघव का फॉरेन यूनिवर्सिटी में एडमिशन हो जाता है।जैसे ही खबर आती है वह अपनी माँ को बताना चाहता है लेकिन रात के 4:00 बजे होते हैं इसलिए वह सीधा निशा को फोन करता है और उससे कहता है कि वह जाने के बाद उसकी मां का ध्यान रखें।
कुल मिलाकर कहानी एक परिवार की है जिसमे सब एक दुसरे के बेहद करीब हैं।
क्या सोच रहे हैं ? निशा के बारे में ? क्या कहा ,"हाँ" ?
तो बात ये है की निशा बिलकुल घर की सदस्य है, एक सुलझी हुई लड़की जो राघव और शालू से बेहद प्यार करती है। यहाँ तक की शालू और निशा मिलकर राघव की खूब खिंचाई भी करते हैं।
जैसे-जैसे राघव के अमेरिका जाने के दिन करीब आते हैं, मायूसी सबके दिलों में घर बनाने लगती है। काम का दबाव और राघव के जाने की चिंता के चलते शालू अस्पताल तक पहुँच जाती है।
तो इब्नेबतूती कौन है , कहाँ है वह ?
जब शालू अस्पताल में होती है तो निशा अस्पताल से घर उन दोनों के कपडे लेने जाती है , तब " घर के उस स्याह कोने से जो खोलने के लिए नहीं होते ", वहां से एक बक्सा मिलता है जिसमे कुछ खत होते हैं जो "इब्नेबतूती" के नाम होते हैं। निशा राघव को ये सब बताती है। राघव को समझ नहीं आता की वो अब क्या करे , कैसे अपनी माँ से इस बारे में बात करे।
इसी कश्मकश में इब्नेबतूती की कहानी आगे बढ़ती है। और वर्तमान और भूतकाल को साथ लेते हुए परत दर परत खुलती है।
शालू से शुरू हुई कहानी इब्नेबतूती तक पहुँचती है और राघव को अपनी माँ के अंदर छुपी उस बीस साल की अलहदा शालू से मिलवाती है जो प्ले करती है, डिबेट करती है ,कॉलेज की सबसे अच्छी एक्ट्रेस है ,जिसकी बात को टालने की हिम्मत किसी में भी नहीं है।
यही रुआब उनका सरकारी नौकरी में भी है ईमानदारी के साथ नौकरी करते हुए शालू कभी भी अपने एकल माँ या औरत होने को आड़े नहीं आने देती।
किसे कैसे सबक सिखाना है या कैसे अपने सरकारी रसूख का इस्तेमाल करते हुए अपना काम निकलवाना है ये शालू अच्छी तरह जानती है। चाहे वो एक ठरकी साथ काम करने वाले को सबक सिखाना हो या रेल का टिकट कन्फर्म करना।साउथ इंडियन फिल्मों की शौकीन शालू बड़ी ही चालाकी से सब कर लेती है।
चिट्ठियों में कुमार आलोक की इब्नेबतूती से मिलकर राघव के अंदर छिपे मर्द को ये नागवार गुजरता है की उसकी माँ उसके पिता की मौत के बाद कैसे ये सब कर सकती है। दुनिया का कोई भी बच्चा ये कभी नहीं सोच सकता ! हमारे लिए माँ बस त्याग की मूरत है।
उसके भी कुछ सपने होंगे या वो भी कभी जवान रही होंगी ये बच्चे सपने में भी नहीं सोच सकते।और माँ होती भी तो ऐसी ही है।
दुनिया के सभी माएँ अपने बच्चों से इतनी बातें करती हैं लेकिन अपने मन की बात कहने में उनके पास भाषा कम रह जाती है। हर मां अपनी मर्जी को बच्चे की खुशी से तौलती है और बच्चे की खुशी वाला पलड़ा चाहे हल्का हो या भारी इसकी नौबत आती ही नहीं क्योंकि माँ की तराजू में दोनों तरफ बस बच्चे की खुशी का ही पलड़ा होता है।
लेकिन एक 20 साल की लड़की क्या सोच सकती ये शालू को बहुत अच्छे से पता है। राघव के दूर जाने के गम को दिल में समाये और आंसुओं को आँखों में छुपाये वो राघव को ये सब समझाती है।
माँ को अकेले छोड़ना तो राघव भी नहीं चाहता था और शालू के समझाने के बाद उसे सब समझ भी आ जाता है। लेकिन माँ के समंदर जैसे दिल से उसकी सोच का मोती ढूंढ़ना इतना आसान कहाँ ?
पर राघव और शालू भी मिलकर सारे दांव पेंच लगाते हैं। अखबार में मैट्रिमोनियल से लेकर मैरिज प्रोफाइल तक बना डालते हैं। कुछ हद तक शालू उनका ये दांव सफल भी होने देती है प्रोफेसर से मिलकर। प्रोफेसर बंगाली भी राघव, शालू और निशा से घुल मिल जाता है और समय समय पर उनकी मदद भी करता है।
सही समय देखकर राघव शालू से कुमार आलोक के बारे में पूछता है। और तब वो मिलता है इब्नेबतूती से और जानता है की कैसे आरक्षण और मंडल कमिशन ने और प्रदर्शन से जुड़े एक हादसे ने दो हँसते खेलते इंसानो की दुनिया में तूफ़ान ला दिया था।
आरक्षण और जातिवाद के चलते दोनों के रास्ते कैसे अलग हो गए , कैसे अपनी अमेरिका जाने की तैयारियों के बीच राघव जीवन के खोये हुए सिरे तलाशता है और कैसे अपनी माँ के कॉलेज में कुमार आलोक की इब्नेबतूती से रुबरु होता है, ये जानने लिए पढ़िए इब्नेबतूती।
160 पन्नो की किताब बहुत से सवालों के साथ और बहुत से ऐसे जवाबों के साथ छोड़ जायेगी , जो हमें पता तो है की सही हैं पर हम कबूल नहीं करना चाहते। ठीक उसी तरह जैसे हमे पता है की सैर करना सेहत के लिए अच्छा है , लेकिन सैर शुरू करने वाला कल कभी नहीं आता।
हर पेज पर कुछ न कुछ अंडरलाइन या कोट करने के लिए मिल जाएगा। एक और ख़ास बात चिट्ठियां और उनके पोस्ट स्क्रिप्ट इतने कमाल है की सिर्फ उनके लिए भी किताब पढ़ी जा सकती है जैसे की
जीना , एक नई ज़िंदगी की तलाश भर ही तो है।
किताब में मंडल कमिशन ,आरक्षण ,DU कैंपस , बोधगया आदि को दिखाते हुए मौलिकता का ध्यान रखा गया है।
दिव्य जी का अक्टूबर प्रेम यहाँ भी दिखा ,वही 10 अक्टूबर एक ख़ास तारीख। पुत्तन भैया, लखनवीं बोली और फौजी का ढाबा भी अहम भूमिका में हैं।
कहानी में बड़े परदे पर आने वाले सारे गुण है। छोटी छोटी प्रूफ रीडिंग की गलतियां है जो नजरअंदाज की जा सकती हैं। अंत बहुत खूबसूरत है, जैसा की होना चाहिए।
कोई भी कहानी या किताब परफेक्ट नहीं होती लेकिन हर किताब में कुछ सीखने के लिए जरूर होता है। जैसे की कोई कलाकार कला से चाहे कितना भी दूर रहे, मंच मिलते ही वो अपने किरदार में आ जाता है और हर शालू को अपनी जिंदगी अपनी मर्ज़ी से जीने का हक़ है।
अंत में बस यही की अगर हम अपनी माँ में छिपी लड़की से मिला दे तो शायद कुछ पल ही सही वो खुद के लिए जी लेगी। किसी इब्नेबतूती को भी अगर उसके सपनों से मिलाने की सोच अगर बन जाये तो कितना अच्छा होगा।
शगुफ्ता लोग भी टूटे हुए होते हैं अंदर से
बहुत रोते है वो जिनको लतीफे याद रहती हैं
-मुन्नवर राणा
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