आज़ादी - एक दिन की

हर साल की तरह इस साल फिर देश आज़ाद हुआ, मगर सिर्फ एक दिन के लिए। एक दिन के लिए हम यह भूल गए कि हम हिन्दू है, हम मुसलमान है, हम क्रिस्चियन है। एक दिन के लिए हमने राष्ट्रीय झंडा लहराया, सीने से लगाया, मैसेज में चिपकाया, वीडियोस में सजाया। एक दिन के राष्ट्रीय गीत गाया, एक दिन के लिए अपने आपको यह एहसास दिलाया कि हम भारतीय है।

एक दिन था, वो एक दिन, जब लाखों लोगों ने, सेनानियों ने, क्रांतिकारियों ने हवा में फैली गुलामी को जड़ से उखाड़ फेंका। एक दिन किसी ने अपने बेटों को खोया – भगत सिंग, सुखदेव, राजगुरु। एक दिन किसी ने सत्याग्रह किया – महात्मा गांधी। एक दिन किसी ने हिम्मत की, अपना दल बनाया – सुभाष चंद्र बोस। ऐसे अनगिनत आम आदमी, एक दिन आम नहीं रहे।

वो एक दिन था, और आज एक दिन है। कुछ नहीं बदला, सच में कुछ नहीं बदला। गुलामी का नाम वही पुराना है – अंधविश्वास, जात-पात, आरक्षण। न हम इंसान के तौर पर बदल पाए, न हम इंसानियत का मकसद समझ पाए। देश की संस्कृति को छोटा समझ बैठे, विदेशी संस्कृति को अपना समझ बैठे।

मेरा भारत महान तो है ही, मगर इसे महान बनाने वाले हम नहीं है। हमने दुनिया की बढ़ती रफ्तार से हाथ मिलाया मगर अपने बहनों, बेटियों पर होते अत्याचार से मुंह फेर लिया। राष्ट्रीय गीत में नदियों की बौछार है, मगर किसी के नल में पानी की एक बूंद नहीं। राष्ट्रीय झंडे पर चार रंग है, मगर किसी का घर आज भी अंधकार में है।

आवाज़ कौन बनेगा? आवाज़ कौन उठाएगा? हम। जिस दिन ‘हम’ की ध्वनि चारों ओर गूँज उठेगी, उस दिन, उस दिन से मेरा देश हमेशा के लिए आज़ाद होगा।

ज्यादा मुश्किल नहीं है, बस आगे बढ़ो और एक साथ चलो।

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