समकालीन कहानी की प्रमुख प्रवृतियाँ

समकालीन कहानी की प्रमुख प्रवृतियाँ 


साहित्येतिहास लेखन, रचना और आलोचना के दौर में प्रतिमान बनाते समय अवधारणाएँ बनती रहती हैं, जैसे – मध्ययुग, नवजागरण, आधुनिकता आदि | इसी प्रकार सत्तर के दशक के आसपास के लेखन के लिए समकालीनता की अवधारणा बनी | आज समकालीन संज्ञा साहित्य के विविध विधाओं के साथ प्रयुक्त हो रही है | इस दृष्टि से ‘समकालीन कविता’, ‘समकालीन उपन्यास’, ‘समकालीन कहानी’ आदि को देख सकते हैं | 

गौरतलब है कि ‘समकालीन’ कहानी-आंदोलन से जुड़े रचनाकारों तथा आलोचकों ने ‘समकालीनता’ के काल परक अर्थ को नकारते हुए उसके प्रवृतियुक्त धारणा को ही स्वीकार किया है –“जिस समकालीन या समकालीनता की चर्चा सन् साठ के बाद की कहानी के संबंध में की जा रही है, उसका ‘शब्दार्थ की धारणा’ से संबंध नहीं है अपितु वह जीवन-बोध के आधार पर समानधर्मा रचनाकारों के बोध की समानधर्मिता है |”[1] समकालीन कहानी पर बात करते हुए मधुरेश लिखते हैं “समकालीन होने का अर्थ सिर्फ समय के बीच होने से नहीं है | समकालीन होने का अर्थ है समय के वैचारिक और रचनात्मक दबावों को झेलते हुए, उनसे उत्पन्न तनावों और टकराहटों के बीच अपनी सर्जनशीलता द्वारा अपने होने को प्रमाणित करना|”[2]

कहना न होगा कि समकालीनता का अर्थ युगबोध से लेना ही सटीक मालूम होता है | किसी काल विशेष में बांध कर इसे देखना उचित नहीं होगा | हम नई कहानी की प्रगतिशील धारा को को समकालीन कहानी की मुख्य धारा के रूप में देख सकते हैं |  गौरतलब है कि हिंदी कहानी की विकास यात्रा में नई कहानी की भूमिका महत्वपूर्ण है | जिस पर कथा साहित्य के क्षेत्र में पर्याप्त चर्चा भी हुयी है किन्तु ‘नई कहानी’ सन् पैंसठ तक आते-आते समकालीन जीवन की स्थितियों को पकड़ पाने में असमर्थ हो गयी | जिस प्रकार एक समय में छायावाद अपने रोमानी बोध के कारण तमाम विशेषताओं के बावजूद तत्कालीन युगबोध को स्वर देने में नाकामयाब रही कमोबेश वही स्थिति नई कहानी के साथ रही | सन् पैंसठ के बाद हिंदी कहानी के क्षेत्र में कथ्य साथ ही शिल्प के स्तर पर परिवर्तन देखने को मिलता है | इस समय आया परिवर्तन बाद के दशकों में विकास पाता हुआ हिंदी कहानी को समृद्धता प्रदान करता है | ध्यातव्य है कि सन् साठ के बाद कहानी में कई आन्दोलन प्रचारित और प्रसारित हुए, लेकिन ‘समकालीन कहानी’ के अंतर्गत ही इस दौर को देखना उसे व्याख्यायित करना अधिक समीचीन मालूम होता है | 

‘समकालीन कहानी’ के दौर की ऐतिहासिकता पर दृष्टिपात करें तो हम देख सकते हैं कि इस दौर में सामाजिक और राजनीतिक परिवेश बदल रहा था | 1962 ई. में चीन के हाथों पराजय, 1964 ई. में पंडित जवाहरलाल नेहरू का निधन, 1965 ई. में पाकिस्तान के साथ युद्ध , 1967 ई. में नक्सलवादी आन्दोलन जैसी घटनाएँ महत्वपूर्ण है जो ‘समकालीन कहानी’ का परिवेश तैयार करती है | यह वही समय था जब मुद्रा–स्फीति और मुद्रा-अवमूल्यन के कारण देश में आर्थिक संकट की स्थिति बन रही थी | महंगाई, भ्रष्टाचार, अकाल, भुखमरी की इन स्थितियों ने साहित्यकारों को खूब प्रभावित किया | यह वही दौर है जब कथा साहित्य में यथार्थ का मुहावरा बदलता हुआ नजर आता है | अब कहानी का नायक, पात्र विषम परिस्थितियों में जीते हुए भी व्यवस्था से लड़ने, प्रतिरोध करने और उसे बदलने की एक तीव्र बेचैनी के साथ दिखाई पड़ने लगता है | इस दृष्टि से ‘समकालीन कहानी’ का यथार्थ नई कहानी के यथार्थ से बदला हुआ नजर आता है | ‘समकालीन कहानी’ की प्रवृतियों को हम विगत पाँच दशकों की कहानियों के बदलते मिजाज के अनुसार देख सकते हैं | सन् साठ के बाद के कहानी-आंदोलन की प्रवृतियाँ चाहे वह शिल्प के स्तर पर हो या भाव- बोध के स्तर पर मूलतः ‘समकालीन कहानी’ की ही प्रवृतियां मानी जानी चाहिए | इन कहानी आंदोलनों में ‘अकहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘सहज कहानी’, ‘सक्रिय कहानी’, ‘समांतर कहानी’, ‘जनवादी कहानी’ आदि को देखा जा सकता है | साथ ही समकालीन कहानी के वर्तमान दौर में जिन दो समांतर प्रवृतियों को रेखांकित किया जाना चाहिए वह है – स्त्री विमर्श और दलित विमर्श | 

                            ‘अकहानी’ आन्दोलन के प्रस्तोता जगदीश चतुर्वेदी थे | श्याम परमार, दूधनाथ सिंह, रमेश बक्षी, रविन्द्र कालिया, आदि लेखकों ने भी सक्रिय रूप में इन आंदोलनों से अपने को सम्बद्ध किया | गौरतलब है कि इन कथाकारों ने स्वयं को सामाजिक सरोकारों से ही नहीं जोड़ा बल्कि प्रेम और यौन संबंधो के क्षेत्र में नैतिकता के छद्म को भी तोड़ा | काम संबंधों के प्रामाणिक यथार्थ और देह धर्म के ईमानदार स्वीकार की अभूतपूर्वईमानदारी और अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सकने का साहस इन कथाकारों में प्रथम बार दिखाई देता है | अकहानी में जीवन की एब्सर्ड एवं पारिवारिक-सामाजिक- नैतिक मूल्यों के विघटन जैसी प्रवृतियाँ देखि जा सकती है | यह संबंधहीनता की स्थितियों को भी उभरती है | महानगरीय जीवन की यांत्रिकता और उसके प्रभाव से प्रेरित कहानी इसके अंतर्गत देखी जा सकती है | इस आन्दोलन ने कहानी को अपेक्षित परिपक्वता प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | जिससे हिंदी कहानी तथाकथित लज्जा और नैतिकता से मुक्त होने में सफल हुआ |

           ‘अकहानी’ की प्रतिक्रिया में ‘सचेतन कहानी’ का आगमन हुआ | इस आन्दोलन के प्रस्तोता महीप सिंह थे | इन्होंने ‘संचेतना’ पत्रिका के माध्यम से अपने कहानी आन्दोलन को स्वर दिया | सचेतन कहानी जिंदगी की स्वीकृति की कहानी है | वह अकेलेपन और बनावटी घुटन का प्रदर्शन नहीं करती | सच्र्तन कहानी मृत्यु, संत्रास, भय, कुंठा आदि की प्रवृति को पश्चिम से आयातित थोपी गई मानती है एवं आत्मसंघर्ष, सजगता तथा जागरूकता  का समर्थन करती है| महीप सिंह की कहानी ‘कील’, मनहर चौहान की ‘बीस सुबहों के बाद’ आदि कहानियों के कथ्य मानसिक द्वंद्वों एवं उनसे मुक्ति पाने के प्रयासों पर आधारित हैं | कहना न होगा कि  यह कोई शिल्पगत आंदोलन नहीं बल्कि वैचारिक आंदोलन था | महीप सिंह की ‘उलझन’और ‘उजाले के उल्लू’, रामदरश मिश्र की ‘दरार’ तथा शैलेश मटियानी की ‘उसने नहीं कहा था’ सचेतन कहानी आंदोलन की प्रमुख उपलब्धि है | यह कहानी आंदोलन निष्क्रियता के विरुद्ध सचेतन व सक्रिय जीवनबोध एवं जीवन संघर्ष को स्वर देता है |  

                      ‘सहज कहानी’ अत्यंत सीमित दायरे में सिमटा हुआ एक ऐसा आन्दोलन है जिसका अपना कोई घोषणा-पत्र नहीं है | अमृतराय ने स्वयं इसे एक आन्दोलन मानने से इंकार कर दिया | स्पष्ट है कि सहज कहानी से तात्पर्य उस मूल कथा-रस से है जो कहानी की अपनी चीज है | भरी-भरकम प्रतीकों, बिम्बों और भाषा का सहज कहानी विरोध करती है | 

                        राकेश वत्स ने 1962 ई. में अपनी पत्रिका ‘मंच’ के माध्यम से ‘सक्रिय कहानी’ आंदोलन का सूत्रपात किया इसके द्वारा जन सामान्य के भीतर मौजूद उस चेतना को जागृत करने का प्रयास किया गया, जो सामाजिक रूढ़िवादिता के कारण जड़वत हो गयी थी | सक्रिय कहानी मनुष्य को स्वयं के अंतर्द्वंद्वों से लड़ने की प्रेना देती है | राकेश वत्स की कहानियां शोषण के विरुद्ध संघर्ष का आह्वान करती है, ‘जंगली जुगराफिया’, ‘हमें अपनी लड़ाई खुद लड़नी है’,’एक-न-एक दिन’ इसी कथ्य पर लिखी गई कहानियां हैं | 

                         1971 ई. में कमलेश्वर ने ‘समांतर कहानी’ आन्दोलन प्रारंभ किया | गौरतलब है कि एक योजनाबद्ध तरीके से इस आन्दोलन को चलाया गया | 1974 के अक्तूबर अंक से ‘सारिका’ के ‘समांतर’ कहानी विशेषांकों की सीरीज जुलाई, 1975 ई. तक दस अंकों में प्रकाशित हुई | नए–पुराने अनेक कहानीकारों ने अपने को ‘समांतर’ से सम्बद्ध किया | कामतानाथ, मधुकर सिंह, उमेश उपाध्याय, जीतेन्द्र भाटिया, इब्राहीम शरीफ, सुदीप, दामोदर सदन, सनत कुमार आदि अनेक कथाकार इस आंदोलन में सक्रिय रहे | समांतर कहानी मूल रूप से वंचित और विषमता-पीड़ित मानवता की पक्षधर है | इस दौर में रचनाओं और विचार विमर्श की जो दिशाएं उद्घाटित हुई , वे गवाही देती हैं कि इस वैचारिक आंदोलन ने खुद को मात्र हिंदी तक सीमित नहीं रखा था | वस्तुतः समांतर कहानी के दो पक्ष हैं - एक, जिसके कारण आम आदमी अभिशप्त है , और दुसरे , वह आम आदमी के संघर्षों को अभिव्यक्त करते हुए उन स्थलों को प्रस्तुत करती है जिसके कारण आम-आदमी के संघर्ष की पकड़ दुर्लभ हो रही है | इस दृष्टि से जवाहर सिंह की ‘गुस्से में आदमी’, हिमांशु जोशी की ‘ जलते हुए डैने’, आशीष सिन्हा की ‘आदमी’, अरुण मिश्र की ‘अंधे कुँए का रास्ता’ प्रमुख है | आजादी के बाद आम आदमी की स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं आया | बेरोजगारी, मंहगाई ,तंगी बदस्तूर जारी रहा | समांतर कहानी ने जन-सामान्य की इस नियति को शिद्दत के साथ महसूस किया |

           ‘जनवादी कहानी’ आंदोलन की प्रतिबद्धता किसान- मजदूरों के प्रति है | जनवादी कहानीकारों ने कहानी को सीधे जनसंघर्ष से जोड़ने का प्रयास किया | इसे प्रगतिवाद का नया एवं गद्यात्मक संस्करण मन जा सकता है | जनवादी कहानीकारों ने वर्ग-संघर्ष चेतना को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया | जनवादी कहानियों में ग्रामीण पृष्ठभूमि पर कहानियां लिखी गई | नीरज सिंह की ‘करिश्मा’ में गाँव में व्याप्त गरीबी, भ्रष्टाचार, व सामंती व्यवस्था के चित्रण के साथ उभरती जन-चेतना को स्वर दिया गया | अधिकतर जनवादी कहानियां राजनीतिक हैं| यद्यपि यह आंदोलन शिल्पगत न होकर वैचारिक है फिर भी इन कहानीकारों ने प्रतीकात्मक, एब्सर्ड शैली का प्रयोग किया | जनवादी कहानीकारों में नीरज सिंह, रमेश बत्रा, असगर वजाहत, सूरज पालीवाल आदि प्रमुख हैं | प्रभु जोशी, स्वयं प्रकाश, पृथ्वीराज मोंगा, वल्लभ डोभाल, आशीष सिन्हा, मनमोहन मदारिया, सीतेश आलोक, विनोद शाही आदि कई लेखक अपनी कहानियों से समकालीन कहानी को समृद्ध  कर रहें हैं |

                      गौरतलब है कि इन कहानी आंदोलनों की समग्रता में हम समकालीन हिंदी कहानी की प्रवृतियाँ को देख सकते हैं | साथ ही 1990 के दशक में हिंदी कहानी और दलित विमर्श की जो सशक्त धारा उभर कर सामने आती है वह समकालीन कहानी को नया स्वर प्रदान करती है | यह वह दौर है जब सहानुभूति और स्वानुभूति का प्रश्न खड़ा होता है| ध्यातव्य है कि दलित लेखकों ने दलित-समस्या के चित्रण के साथ-साथ दलित विमर्श को एक नया आयाम दिया | दलित लेखकों के लिए दलित समस्याओं पर आधारित रचना उनके अस्तित्व का प्रश्न बनकर आता है | शायद इसीलिए वे अस्तित्व के प्रश्न को पेट के प्रश्न पर प्राथमिकता देते हैं | इनकी कहानियों में आत्मपरकता है, आक्रामकता है, प्रतिक्रिया और प्रतिहिंसा का भाव मौजूद है | यही कारण है कि कई दफ़ा इन कहानियों की भाषा श्लीलता की चौहद्दी को भी लाँघ जाती है | ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’, ‘अम्मा’, ‘सलाम’, जयप्रकाश कर्दम की ‘और बिट्टन मर गई’ जैसी कहानियां दलित जीवन की दारुण कथा को स्वर देती है | 

वहीँ स्त्री-विमर्श ने भी समकालीन हिंदी कहानी को प्रभावित किया | यहाँ भी सहानुभूति और स्वानुभूति का प्रश्न उठ कर सामने आया | लेकिन यह निश्चित तौर पर स्वीकार किया जाना चाहिए कि उनकी स्थितियां पुरुषों से अलग है इसलिए उनकी कहानियों के तेवर भी अलग हैं | महिलाओं का जो अनुभव क्षेत्र है ,वह है – घर परिवार और बदलते सामाजिक परिवेश में उनकी नौकरी स्थल | इसीलिए उनके द्वारा श्रेष्ठ कहानियां भी इन्हीं अनुभव क्षेत्रों से आई हैं| स्त्री-पुरुष संबंधों की सूक्ष्मताओं को भी उन्होंने बहुत ही कौशल से अंकित किया है| पुष्पपाल सिंह लिखते हैं, “घर –परिवार की मध्यवर्गीय दिनचर्या के बीच नारी ने अपनी नौकरी का समीकरण किस तरह बिठा रखा है, नौकरी-पेशा नारी का संघर्ष कितना जटिल है, नौकरी करते हुए उसे भावात्मक–संघर्ष की किन–किन स्थितियों से गुजरना होता है, यह सब प्रामाणिक रूप से जानने के लिए हमें महिला कहानीकारों की कहानियों को पढना चाहिए |”[3] समकालीन परिदृश्य में महिला कहानीकारों को लम्बी फेहरिस्त है | मन्नू भंडारी जो की नई कहानी के दौर में भी सक्रिय थी ,समकालीन कहानी की प्रमुख लेखिका हैं ,’त्रिशंकु’, ‘यही सच है’ इनकी प्रमुख कहानी संग्रह हैं | इसी क्रम में ममता कालिया की कहानियां हैं| ‘सीट नंबर छह’,’एक अदद औरत’, तथा ‘प्रतिदिन’ इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय हैं | सुधा अरोड़ा ने समाज में नारी के भावात्मक संघर्ष और विशेषतया घर की चक्करघिन्नी में असमय बुढा जाती स्त्री की मनोव्यथा पर बहुत सशक्त रूप से लिखा है | ‘पति परमेश्वर’, ‘साल बदल गया’, दमनचक्र’ आदि इनकी सशक्त कहानियां हैं | इसी क्रम में नासिरा शर्मा,मृदुला गर्ग, मणिका मोहिनी, निरुपमा सेवती, मंजुल भगत,  राजी सेठ, मेहरुन्निसा परवेज, मालती सिंह, मैत्रयी पुष्पा, सूर्यबाला जैसी कहानीकारों को देखा जा सकता है | 

             गौरतलब है कि शिल्प के स्तर पर समकालीन हिंदी कहानी की एक खास विशेषता कला और भाषा का जिंदगी के यथार्थ के साथ गहरा संबंध भी है | यदि हम समकालीन हिंदी कहानी के शिल्प पर दृष्टिपात करें तो साफ पता चलता है कि कहानीकारों ने समकालीन जिंदगी के यथार्थ का चित्रण करते हुए कहानी की रचना का जो विधान किया है उसमें उनकी भाषा और वाक्य रचना, जिंदगी के यथार्थ के अत्यंत करीब है। वहां बौद्धिकता का आग्रह भी है लेकिन इस तरह से कि वह कहानी कला का अहम हिस्सा लगे। विचार भी उन कहानियों में ऐसे आये है जैसे कि उस पात्र की जिंदगी का अहम हिस्सा हो और अगर वे विचार नहीं होते तो कहानी किसी और दौर की लगती। सबसे बड़ी बात यह है कि रचनाकारेां ने इस दौर की कहानियों में सामंती और पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध का जो शास्त्र रचा है वह इधर की कहानियों की भाषा और संरचना के स्तर पर समाज का हिस्सा लगती है। इस दौर के कहानीकारों ने जिंदगी के यथार्थ का बयान करने लिए जिस भाषा को रचा है उसे देखकर पता चलता है कि भाषा केवल भावों और विचारों को ही अभिव्यक्त नहीं करती है, बल्कि वह पाठकों को समकालीन समय के दबाव, भय और उसके निहितार्थ का बोध भी कराती है। उनमें इतने तरह के संकेत, संदेश एवं प्रक्रियाएं है कि पाठक को जब इस बात का अहसास होता है तब वह चकित हो उठता है कि क्या भाषा और उसमें आये संकेत जीवन के यथार्थ का इस हद तक चित्रण कर सकते हैं कि वह जीवन को समझने का जरिया बन जाए | 

इस प्रकार हम देखते हैं कि बीसवीं सदी के अंतिम दशक में उदारीकरण और भूमंडलीकरण की जैसी प्रक्रियाओं ने समकालीन समय और समाज को गहराई के साथ प्रभावित किया जिसे आखिरी दशक के रचनाकारों ने गंभीरता के साथ अपनी रचनाओं में चित्रित किया है और अब भी कर रहें हैं । आज के समाज के प्रश्नों को समकालीन कहानीकारों ने गंभीरता के साथ पकड़ा और उस पर विचार किया है | समकालीन कहानी ने वर्तमान समय की संवेदनशून्यता की गहरी पड़ताल की है तो वहीँ मनुष्य के मुक्ति की वैचारिकी के निर्माण में भी अहम् भूमिका निभाई है |


गौरव भारती 

शोधार्थी

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय 

मोबाईल- 9015326408 


सन्दर्भ:-

[1] . समकालीन कहानी दशा और दृष्टि, गंगा प्रसाद विमल, पृष्ठ संख्या -166

[2]हिंदी कहानी का विकास, मधुरेश, पृष्ठ संख्या – 176 

[3] .कहानी का उत्तर समय,पुष्पपाल सिंह, पृष्ठ संख्या -117,सामयिक बुक्स, दिल्ली,संस्करण-2013 

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