देश आज ब्रटिश राज से मुक्ति के 71 वर्ष पूर्ण कर चुका है और हम सभी इसे स्वतंत्रता दिवस के रूप में मना रहे हैं। आप सभी को हार्दिक बधाई।
16 अगस्त 1947 से हम कुछ और गुलामी से मुक्ति के लिए संघर्षरत हैं। आज के परिपेक्ष्य में यदि इस दिशा में हुई प्रगति का अवलोकन नहीं होगा तो प्रगति चिन्हित करना बेमानी लगेगा। अंग्रेज गए पर वे विरासत में देश की खस्ता हाल अर्थव्यवस्था छोड़ गए। वे देश विभाजन, संकुचित और आत्म केन्द्रित राजनीति के वे माइन्स छोड़ गए जिनमे अब तक घातक विस्फोट हो रहे हैं। वे फूट डालो और शासन करो के उस राजनैतिक विनाशक सिद्धांत को रोप गए जिससे यदि कुछ मुट्ठी भर लोग थोड़ा विकास कार्य करते भी हैं तो वह भी आज के दृष्टिकोण से गौण बन जाता है।
दस साल के लिए जारी आरक्षण की सुविधा चुनाव जिताऊ मन्त्र बन कर आज तक टूल के रूप में उपलब्ध है। जिन लाभार्थियों का जीवन स्तर गुणात्मक रूप से सुधरा भी है वे भी स्वत: इस सुविधा के सतत उपभोग से खुद को अलग नहीं कर पा रहे हैं।
अर्थ व्यवस्था का वह पुरसाने हाल है कि एक मध्यम या उच्च वर्गीय कर्मचारी अपने सालाना वेतन के एक से दो माह का वेतन आयकर में चुकाने के बाद भी अनेकों इन डायरेक्ट टैक्स चुका कर देश की अर्थ व्यवस्था पर भार होती तमाम व्यवस्थाओं को पोषित कर रहा है।
औद्योगिक विकास का यह आलम है कि 80-90 के दशक में हम जिन कुछ वस्तुओं का उत्पादाब खुद कर लेते थे उत्पादन मूल्य बढ़ने से वे उत्पाद चीन के सस्ते उत्पादों के आगे टिक नहीं पाए और धीरे-धीरे वे इकाइयां बंद हो कर विलुप्त हो गयीं।
इतिहास बतलाता है कि अवध पर जब हमला हुआ था तो वहां के सत्ताधीश मनोरंजन में डूबे हुए थे। यह वाकया अपने आप में बहुत बड़ा सामाजिक और राजनैतिक संदेश चेतावनी के रूप में देता है। लोग फेस-बुक और व्हाट्स एप में उलझे रहें या माल्स में फिल्मे और टी वी पर सीरियल देखते रहें किसी एडिक्ट की तरह और समाज तथा देश का धीरे-धीरे पतन और क्षरण होता रहे।
ऐसा नहीं है कि देश में विकास कार्य हुआ ही नहीं है, समस्या यह है कि यह कार्य कभी भी भूत काल से सबक सीखकर भविष्य की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखकर नहीं हुआ। सडके बनाने के बाद ध्यान आया कि नाली बनानी थी, सड़क फिर खोद डाली। फिर ध्यान आया कि टेलीफोन के केबल नहीं डल पाए तो उसे भी डालने के लिए सड़क खोद दी। जिन चौराहों पर नेताओं की आदमकद प्रतिमाएं लगायीं थीं उन्हें पुनरुद्धार के नाम पर रंग कर फवारा लगाने के क्रम में बची खुची सड़क फिर खोद दी गयी। फिर सडक रिपेयर की गयी और फिर लगा कि ट्रैफिक बढ़ गयी है तो मैट्रो ट्रेन चला दी जाए। लीजिये फिर नए सिरे से निर्माण को फिर नई दिश मिल गयी। ऐसा नहीं है कि इप्लीमेंटशन टीम को एग्जक्यूशन टीम को इसका पूर्वाभास् नहीं होता पर वे इन सब से बेखबर रहकर सिर्फ दिए गए काम को पूर्ण करने का यत्न करते हैं।
एक आयकर दाता की हैसियत से हमे यह पूछने का हक़ है कि इस तरह जनता का गाढी कमाई का पैसा इस तरह लुटाने वाले लोग कहीं किसी भी प्रकार की जवाबदेही लिए नौकरी कर रहे हैं।
विकासशील देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर पर लंबे समय तक काम चलता है, लेकिन कितने लंबे समय तक यह भी एक प्रश्न के रूप में उभरा है। एक तरफ हम खुद को विश्वस्तर के देश के रूप में साबित करने पर लगे हैं, कहाँ यह उखड़ी सड़कें और परत पर परत खुलते घोटाले विकास की एक दूसरी कहानी कह रहे हैं।
बात हताश होने की होगी क्यूंकि बेतरतीब दौड़कर आप किसी लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकते, लेकिन निराश मत होएं, हर व्यक्ति खुद आत्मावलोकन करे, जाने कि संविधान के अधिकार कर्त्तव्यों के अनुपालन पर ही आपको मिलेंगे। आरक्षण आपकी बैसाखी है, इसे विरासत मत बनने दीजिये। किसी भी योजनाओं पर भविष्य की आवश्यकताओं का आंकलन कर ही परियोजना पर अमल करें और अनावश्यक खुद का और आमजन की मेहनत का पैसा ना खर्च करें ना करने दें। सिर्फ सीमा पे सैनिक खड़े करके या उनका बलिदान करवाके तो आप सीमा पर आक्रमण और अतिक्रमण रोक सकते हैं किन्तु जो देश अपनी तकनीकी क्रान्ति के बल पर आपकी मांग अनुरूप तुलनात्मक रूप से सस्ताक उत्पाद लेकर आपके बाजार में घुसपैठ कर चुके हैं और आपके देश को बेरोजगारी की दोजख में धकेल चुके हैं उनसे उनके स्तर पर लड़ने का समय है।
इन सब में एक बात जो कहीं छूटी जा रही थी वह परिवार के लिए वांछित समय निकालने का है। आप जानिये कि तमाम छुट्टियों का प्रावधान होने के बावजूद भी बहुत से नियोक्ता अपने कर्मचारियों का इतना अधिक शोषण करते हैं कि वे उन्हें छुट्टियों में भी काम करने को उद्वेलित करते हैं। जबकि परिवार और समाज के प्रति भी किसी भी व्यक्ति की जिम्मेदारी को नकारा नहीं जा सकता। यह श्रमिकों पर गुलामी के हावी होने का एक और मिश्र रूप है, जो अंग्रेजों के जाने के बाद भी लागू है। कोई भी व्यक्ति कम्प्यूटर की तरह मल्टी टास्किंग नहीं हो सकता। कई सारे काम को इकट्ठा करवाने के दबाव में या तो वह अपना आउट्पुट बिगाड लेता है या सोशल बैक ग्राउण्ड में आउट आफ फोकस हो जाता है। आओ समझिये कि देश का नागरिक देश को अपनी सन्तान के रूप में तभी एक सजग विरासत सौप पायेगा जब उसे अपनी सन्तान के उद्भव और विकास में उसका निर्धारित रोल निभाने दिया जाएगा। जीविका के लिए काम का अपना दायरा है और परिवार के लिए समय देने का अपना महत्त्व है। अगर यहाँ सोशल इंजीनियरिंग फेल हुई तो देश को हम विरासत में एक कुंठित और बिखरा हुआ समाज ही दे पायेंगे जहां पड़ोसी तो दूर बच्चों का अपने माँ-बाप से भी कोई सरोकार नहीं होगा। तब देश का क्या होगा??? भावनात्मकता विहीन समाज की परिकल्पना यदि स्वरूप लेगी तो पाषाण युग की तरफ हमारा गमन सुनिश्चित है।
निराश नहीं होना है, देश के भीतर कर्मरत तमाम व्यक्ति खुद अपने आप में एक सैनिक समझे जो सीमा के भीतर फैली कुव्यवस्थाओं के खिलाफ लड़ने वाला समझे। ईमानदारी से देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था को सुघड़ रखे, मतदान का हिस्सा बने, योग्य नेतृत्व का चयन करे और देश को समग्र विकास की दिशा में गतिमान करे।
तमाम विकासोन्मुखी, समग्र विकास की संभावनाओं का प्रयोग कर देश आर्थिक गुलामी से उबरे, सोशल इंजीनियरिंग का प्रयोग कर सामजिक समरसता लाये, जात-पात के बंधन से मुक्त हो, शोषक और शोषित की परिभाषाओं को इतिहास बनाए और सीमा पर खडे सैनिकों का आत्मबल बन कर देश को शारीरिक रूप से प्रबल करे, प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा करते हुए कुशल और शिक्षित नेतृत् को चुने।
पुन:श्च स्वतंत्रता दिवस पर हार्दिक बधाई।