उस रमणी के आलिंगन में
डूब चुके हो डुबा चुके हो
समय बहुत तुम खपा चुके हो
क्या पाया उस हाड़-मांस में ?
उस रमणी के आलिंगन में
जब तक तन है तब तक मन है
यह जीवन का कैसा रण है ?
कैसा सुख मिलता है उसमे ?
उस रमणी के आलिंगन में
फेंक निकाल तू उस रावण को
जिससे यह जीवन पावन हो
है कैसा सुख उस धन में ?
उस रमणी के आलिंगन में
वह तो बस एक परछाई है
ना जाने कहाँ से वो आई है ?
क्यूँ झुलस रहे हो तपते वन में ?
उस रमणी के आलिंगन में
बंधु ! वह दो क्षण का सुख है
जो विजय हुआ वही पुरुष है
पुरुषार्थ का फूल ना इस उपवन में
उस रमणी के आलिंगन में
हो पुरुष तो मर्यादा को खोजो
हवस न मन में कभी सहेजो
रंग गये हो क्यूँ उसके अंजन में ?
उस रमणी के आलिंगन में
उस रूपवती का सम्मान करो तुम
पवित्र स्पर्श हो ! ध्यान रखो तुम
यह खूबी हो गर तेरे मन में
फिर सैर करो उन्मुक्त गगन में
उस रमणी के आलिंगन में ।।
...✍️ मनीष ©