यूँ ही चलते-चलते....

यूँ ही चलते-चलते....

विधा-आलेख
दिनांक- -28/1/2019

शीर्षक- -" द्वंद्व "

भारतीय समाज  इस समय पथभ्रष्ट  है। वह निर्णय ही नहीं  कर पा रहा है कि रास्ता कौन सा सही है। जैसे एक कालिमा की चादर ओढ़े हुए  हैं। सबके अंदर कुछ खदबदा रहा है और वह बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ रहा है। सारे आरोप-प्रत्यारोप इसी की देन है।

समाज में  संघर्ष हमेशा प्रभुत्व की होती है। आदमी की आदिम लालसा दूसरों पर हुकूमत करने की ही है। आज भारत जातीय संघर्ष में फंसा हुआ है, फंसा हुआ  कहना इसलिए है कि चंद लोगों ने इसे ही अपना आधार बना लिया है और सपने बेचकर सारी जनता को दिग्भ्रमित कर खुद राज कर रहे हैं।

जिनके बूते राज कर रहें हैं,  वह उनका वोट बैंक है। यह वह मानते हैं । वह न छिटकने पाए तो झूठी या वाकई में घटित इक्का-दुक्का घटनाओं को हवा देते रहते हैं ।एक सौ पैंतीस करोड़ की जनसंख्या है हमारी। क्या कुछ घटनाएँ सारे समाज का आईना हो सकती है ?

एक रोहित वैमूला की आत्महत्या को दलितों पर अत्याचार, मानसिक शोषण के  नाम पर कितना हो-हल्ला मचा था।
कितने आरोप लगाए थे तथाकथित बुद्धिजीवियों ने.... अत्याचार हो रहा है दलितों पर, शोषण हो रहा है। बाद में  सच्चाई क्या निकलती है कि वह तो दलित ही नहीं  था, क्रिश्चियन था। या दलित थे उसके पूर्वज, और उन्होंने अपना धर्म बदल लिया था। और जब धर्म परिवर्तन कर ही लिया था तो वह दलित  कैसे  था ?
यह तो सीधे- सीधे क्रिश्चियन धर्म पर आरोप लगना चाहिए था कि वह धर्म बदल कर आए हुए  लोगों के साथ भेदभाव करती है। क्योंकि वह क्रिश्चियन था तो दलित हो ही कैसे सकता है।
जाति में  बँटने का आरोप  तो सिर्फ
हिंदू धर्म पर ही लग सकता है।
बाकी धर्म तो कहते हैं कि वह जातियों में  नहीं  बँटे हुए  हैं । तो क्या यह दावा झूठा है ?
अगर नही तो.....
क्या धर्म परिवर्तन कराकर बनाए हुए क्रिश्चियन मूलतः वही रहते है जो वे थे। सिर्फ नाम बदल गये उनके वे तिमोथी, पीटर या श्याम से सैमुअल हो गये। वे पहले हिंदू दलित थे , अब क्रिश्चियन दलित हो गये है। वे पहले गोंड़ आदिवासी थे, अब क्रिश्चियन आदिवासी हैं। सिर्फ  सरनेम बदला और कुछ  नहीं  ?
यह आलेख ही एक सच्ची घटना पर आधारित है। यह मन को आहत करने वाली घटना मेरी एक सखी की
आंखों देखी आपबीती है।
उन्होंने बताया कि उनके पड़ोस में  एक क्रिश्चियन परिवार रहता था और उनसे हमेशा चर्च जाने का आग्रह करता रहता था। एक रविवार उन्होंने हामी भर दी चर्च जाने की। वे उस परिवार के साथ गईं चर्च। बहुत बड़ा, बहुत सुंदर चर्च था। जीसस की सलीब पर टंगी मूर्ति के सामने
आधे हाल में  तमाम बेंच-चेयर लगी हुई  थी।
और आधे हाल में लंबी- चौड़ी दरी बिछी हुई थी।
प्रेयर तक आधी से ज्यादा चेयर खाली थीं और दरी पर गांव देहात से आए लोग बैठाए जा रहे थे। सखी को यह व्यवस्था बहुत अजीब लगा तो उन्होंने पूछ ही लिया कि जब तमाम चेयर खाली हैं तो क्यों लोगों को दरी पर बैठाया जा रहा है। जो जवाब मिला तो उनके होश ही उड़ गये। जवाब यह था कि ये च. ..र हैं  और अभी-अभी क्रिश्चियन बने है। वे वहीं  ठीक हैं ।
सखी अवाक् रह गईं और उनसे कुछ  कहते ही नहीं  बना। वे वापस आईं तो बहुत खिन्न थी। उनके विश्वास को बहुत बड़ा धक्का लग चुका था। इसी खिन्नता में  इसकी चर्चा उन्होंने  मुझसे किया कि क्या मिला उन्हें,  जो धर्म भी बदल लिए पर आज भी हैं तो वही।
यह स्वीकार करना पड़ेगा कि कभी समाज में अस्पृश्यता थी, भेदभाव था। पर अब कहाँ है ?
इतना सुधार तो आ ही चुका है भारतीय  समाज में कि कोई  दुकान,कोई होटल,
कोई  सर्व सुलभ साधन, यातायात,  सड़कें किसी से उसकी जाति नहीं  पूछती हैं। सरकारी सुविधाओं में  सभी बराबर के हकदार हैं। आज सभी की जातियाँ उनकी अपनी पहचान में  तब्दील हो चुकीं हैं ।
ऊँच-नीच के पायदान से मुक्त हैं। क्योंकि सरकारी नीतियों और सुविधाओं में सभी बराबर के हकदार माने जाते हैं ।
फिर कौन है जो जबरदस्ती....
वर्ग-विभेद की बात करता है और उसकी बिशात पर राजनीति कर सिर्फ अपनी रोटियाँ सेंकता है।
सावधान रहने की जरूरत उन नेताओं से है।
समाज तो वाकई  समरस है।
क्योंकि सरकार  किसी की व्यक्तिगत धारणा पर प्रहार नहीं कर सकती है ?
अपनी सोच, समझ, कोई भी अपने घर तक कायम रख सकता है। पर समाज में  जब वह निकलता है तो वहाँ  उसकी अपनी धारणा का कोई  महत्व नहीं होता है।
वहां वह समाज का एक अंग है और उसी के अनुरूप व्यवहार  करता है।
और यह व्यवस्था पूरे देश में  समग्रता से लागू है। और इसका पालन नहीं  करना दंडनीय अपराध माना गया है।
तब यह शिकायत कितनी जायज या नाजायज है, इसका निर्णय तो प्रबुद्ध जन कर ही सकते हैं ।

यह अर्थतंत्र का युग है। सिर्फ  समाजिक तौर पर गरीबी
और अमीरी का वर्ग विभेद हैं। जिसकी जेब में  पैसा है , वह किसी भी जाति का हो, सलामी उसे ही मिलती है।

यह वह देश हो चुका है जो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश द्रोही नारे लगवा सकता है, पर्चे बँटवा सकता है। किसी को भी सार्वजनिक मंच से धमका सकता है।
और यह काम आमजन नहीं करता है। ये जन-नायक करते हैं।
सावधान रहने की जरूरत इनसे है। ये सामाजिक प्राणी नहीं  है। इनके  कार्य इन्हें अपराधी की श्रेणी में खड़े करते हैं। इनका अनुकरण तो हरगिज नहीं  करना
चाहिए ।
अपने देश, अपने समाज, अपने धर्म पर अपनी आस्था को मजबूत रखने का समय है। क्योंकि विध्वंसक शक्तियाँ तो चाहती ही हैं  कि हम आपस में ही लड़ -मरें।
और हमें  प्रण करना है कि हम अपने समाज के लिए, अपने देश के लिए  सदैव एकजुट ही रहेंगे ।
क्रमशः ...

*समिश्रा *

स्वरचित कहानियाँ द्वारा साधना मिश्रा समिश्रा
कापी राइट कानून के तहत सर्वाधिकार सुरक्षित

  Never miss a story from us, get weekly updates in your inbox.