क्या कहती हैं विज्ञापन की छवियाँ


जीवन एक बहुत बड़ा फ़लक है जिसमें तमाम तरह के अनुभव सांस लेते हैं। यह किसी बैंक खाते के अंदर मौजूद दूसरा छोटा खाता होता है जिसमें हम अपनी थोड़ी थोड़ी बचत रखते जाते हैं और जरूरत के समय उसका उम्दा इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं। जब रोज़मर्रा में कुछ अलहदा टकराता है तब एक के बाद एक अनुभव खुलने लगते हैं। ये अच्छे और बुरे तो होते ही हैं और संख्या में भी अधिकहोते हैं। हम औरतों के लंबे से अनुभव संचय होते रहे हैं। हमारे समय की एक विशेषता यह भी है कि अनुभवों के कई तरह की सतहें जुड़ रही हैं और इनका रुख बाहर की दुनिया की ओर भी है। अब किसी भी औरत के पास अपने दफ़्तर, स्कूल, कॉलेज, सड़क, दुकान, बाज़ार, पार्क आदि जगहों से जुड़े कई तजुर्बे बनते हुए दिखाई और सुनाई देते हैं। निश्चित तौर पर हम एक लंबा सफर कर के आ रहे हैं और आज अपने हकों के लिए लगातार आवाज़ उठा रहे हैं। फिर भी हमें उन छवियों से सावधान रहना ही पड़ेगा जिनमें एक ‘इंसान’ को वस्तु या एक ही फ्रेम में क़ैद करके पेश किया जा रहा है। 

वास्तव में विज्ञापन की दुनिया में या फिर डिजिटल जगत में छाई हुई कुछ छवियों पर एक संज्ञान लेने की इस युवा महिला-पुरुष पीढ़ी को ज़रूरत है। हमारे साथी पुरुषों को यह सोचना ही होगा कि औरत कोई बे-दिमाग प्राणी या रोबोट नहीं है जो एक अदना सा सेंट सूंघकर उस पर फिदा हो जाएगी। जब भी इस तरह के विज्ञापन टीवी पर प्रसारित हों, तब यह जरूर सोचें कि यह अपने उत्पाद को बेचने की घटिया रचनात्मकता भर है और उन पर तरस खाएं। महिलाओं को यह जरूर मुंह खोल कर और तेज़ आवाज़ में बताना चाहिए कि यह एक घटिया विज्ञापन है जो सरासर भ्रामकता पैदा करता है। प्रेम और मोह जैसे भाव नितांत आत्मिक होते हैं जिनका सेंट और उसकी महक से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। 

फोन सेवा देने वाली भारत की एक बड़ी कंपनी का विज्ञापन बेहद आराम से आधी आबादी को एक सेविका के ही फ्रेम में फिट करने का गेम खेल रही है। विज्ञापन का सार यह है कि पत्नी दफ़्तर में मालकिन है और पति एक कर्मचारी। वह महिला काम के प्रति प्रतिबद्ध है। लेकिन दूसरे ही दृश्य में वह घर पर जाकर खाना बनाती है और वीडियो कॉल करके इंतज़ार करने की बात कहती है। यह विज्ञापन पहली नज़र में बिलकुल सादा और आकर्षक है। लोगों को प्रेम सा एहसास देने के लिए काफी है। लेकिन यह बहुत खतरनाक है कि दफ्तर में भी काम करो और घर पर जाकर खाना बनाओ। वास्तव में जिस बात को हल्के से लिया गया है वह महिला श्रम है। थकान दोनों को होती है। 

घर और उसके अंदर के भाग भी लंबे समय से औरतों के लिए पक्के किए जाते रहे हैं। जैसे दहलीज़ पर नहीं खड़ा होना चाहिए, खिड़की से नहीं झांकना चाहिए आदि। जब मेहमान आए तो कोई लड़की उनके सामने न आए, जैसी रस्म आज भी हमारे कस्बों और शहरों में दिखती है। दरवाज़ों पर लगे पर्दों का पूरा विमर्श ही हम औरतों को इंगित करता है। इन सब से अधिक रसोई के अंदर जमी हुई छवि माँ व पत्नी के नाम ही सुपुर्द है। इसलिए कहीं न कहीं इन परंपरागत छवियों को चटकाना जरूरी है। एक बार चटकी तो टूटेंगी जरूर। 

इसी तरह एक मोटर साईकिल का विज्ञापन टीवी पर दिखाया जाता है। विज्ञापन के नेपथ्य में एक राजस्थानी गाना चलता है जो सुनने में अच्छा लगता है। लेकिन इस विज्ञापन पर पर्याप्त निगाह डालकर समझना जरूरी है। महिला पानी भरने दूर रेगिस्तान में गई है और उसके पास लगभग पाँच पानी के धातु के छोटे-बड़े घड़े हैं। वह राह पर खड़ी है। तभी एक मोटर साईकिल वाला आता है और वह पीछे बैठती है। अपने सिर पर लगातार पाँचों घड़ों को लिए बैठी, वह यह देखती है कि घड़े गिर नहीं रहे हैं। मोटर साईकिल ऐसे चलाई जाती है कि महिला को झटके नहीं लगते और उसका पानी नहीं गिरता। अंत में गाने में कहते भी हैं- ‘झटका झूठ लागे रे!’ विज्ञापन भले ही मोटर साईकिल के पुर्जों और बनावट का है फिर भी राजस्थानी महिला की वही पूर्ववत छवि है। अब या तो राज्य सरकारों ने अपना काम इतने सालों से ठीक नहीं किया कि आज भी उन्हें पानी लेने जाना पड़ता है। या फिर इन कंपनियों के रचनात्मक विभाग इतने दयनीय क्यों होते हैं कि वे किन्हीं दूसरी छवियों के बारे में सोच नहीं पाते? 

एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि जब गूगल पर अंग्रेज़ी में विलेज़ विमीन टाइप किया जाता है तब महिलाओं के घिसे-पिटे चित्र भी साथ में दिखाये जाते हैं। उनमें से अधिकतर गाँव की महिलाओं को चूल्हा-चौका, खेतों में काम करते हुए, पनघट में पानी भरते हुए मटकों के साथ, रोटी थापते हुए, घर की चार दीवारी में, किसी के इंतज़ार में रहते हुए दिखाया गया है। दिलचस्प यह है कि उनके पास गाँव की महिलाओं की किसी दूसरी छवि की कल्पना ही नहीं है। यह एक अदृश्य पर भयानक तथ्य है। जिसे हम बेहद सामान्य तौर-तरीकों से लेते हैं। इसलिए गढ़ी गई छवियों से डर लगता है। यह ख़्वाहिश है कि ये सभी गढ़ी हुई छवियाँ टूटे और हम भी किसी कलाकार के रूप में, यात्री के रूप में, किसी फोटोग्राफर के रूप में, जंगल में सफारी करते हुए, आसमानी राइडिंग करते हुए, समुद्री ट्रिप का मज़ा लेते हुए आदि छवियों में दिखें और पहचानी जाएँ। ये सब छवियाँ ऐसा नहीं हैं कि मौजूद नहीं हैं पर वे सिर्फ एक वर्ग तक सीमित हैं। एक आम महिला भी यह सब कर ही सकती है तो वे क्यों न दिखे! 

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के आने पर हम महिला सशक्तिकरण की बातें करने के मोड में आ जाते हैं। रैलियाँ निकाली जाती हैं। बैनर बड़े आकार में दिखने लगते हैं। कुछ ख़ास क़िस्म के नारे तेज़ आवाज़ों में सुनाई देने लगते हैं। सरकारी और गैरसरकारी संगठन अपनी आवाज़ें बुलंद करते हैं। आधी आबादी तुरंत ब्रेकिंग न्यूज़ की तस्वीरों में बदल जाती है। ये सब अच्छा है लेकिन उन मुद्दों का क्या जिनकी वास्तव में खबर लेनी चाहिए। देश में अब भी उन कच्चे और पके हुए औरताना अनुभवों की सुध नहीं ली जाती जो आधी आबादी के सशक्तिकरण के संकेतक हैं। पढ़ चुकी बिटियाओं के लिए अब भी रोजगार दूर का चाँद है जो बस दिखता है पर कभी हासिल नहीं होता। सुरक्षा भी एक बड़ा मुद्दा है। इन सब मुद्दों के साथ बाज़ार द्वारा घटिया और परंपरागत जली-कुटी छवियों को भी महत्वपूर्ण मानना पड़ेगा। आज हर हाथ में मोबाइल है और हर कोई वीडियो-फिल्म्स देखने का दीवाना है। ऐसे में ये बाजारी विज्ञापन औरतों की गलत छवि पेश करते हैं जिनका हमें संज्ञान लेना ही होगा।  

(Painting by Thomas Hammer)

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