साहित्य की सामाजिक भूमिका

संगम नारी मंच के समक्ष

साहित्य की भूमिका  जानने से पूर्व जानते हैंकि साहित्य  क्या है?क्यों हैं? साहित्य नाम क्यों दिया गया?

वस्तुतः किसी भी भाषा के वाचिक और लिखित रुप से प्राप्त सँस्कृति,संस्कार,कला को साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है।वाचिक यानि बोलकर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तकग्रहण किया गया।लोक गीत ,लोक कलायें ,परंपरायें इसी तरह हस्ताँतरित होती रही हैं।इस हिसाब से देखा जाये तो आदिवासी भाषाओं,कला आदि का साहित्य सबसे प्राचीन है जिसे फरिभाषित करना थोड़ा कठिन है।जिस प्रकार पानी को परिभाषित करना या हवा को परिभाषित करना ,भावना को परिभाषित करना..।

आशय हुआ कि शब्दों में हम  जिसे ढालना चाहे जिस रुप में ढालना चाहे जिस आकार में ढालना चाहे ढाल लेते हैं।पर शब्द के साथ जब उसका अर्थ ,उसका भाव भी सामंजस्य रुप में जुड़ा हो तब वह साहित्य की संज्ञा को प्राप्त हो सकता है।

ज्ञातव्य है कि संस्कृत के आचार्य  विश्वनाथ महापात्र  सर्वप्रथम साहित्य दर्पण लिख कर साहित्य शब्द को व्यवहार में लाये थे ।वहीं संस्कृत के ही एक अन्य आचार्य कुंतक जी कहते हैं कि -शब्द और अर्थ के लिये सुंदरता की होड़ लगी हो ,स्पर्धा हो वहाँ साहित्य की सृष्टि होती है।क्लिष्ट शब्द ,तुकबंदी,रचना जो भाव हीन हो लेकिन छंद या मीटर के अनुभावों पर शतप्रतिशत सही बैठती हो ठीक वैसी ही है जैसे अपराह्न में जुगनू।इसका आशय ये हुआ कि भाव ही किसी सृजन को वह गहरायी प्रदान करते हैं जो रचना को साहित्य की परिधि में लाते हैं।

निदा फ़ाजली ,गाल़िब ,दाग आदि अनेक कवियों ने बहुत ही सहज ,सरल शब्दों में गहरे भावों की रचना की जिसे रोम रोम महसूस कर सका यही साहित्य है।दुष्यंत कुमार ,जयशंकर प्रसाद रामधारी सिंह दिनकर आदि की रचनायें गहरे भावों को संजोती रचनायें हैं।

अर्थात् साहित्य -शब्द ,अर्थ और भावों की त्रिवेणी हैं जो जनहित की धारा के साथ उच्चादर्शों की दिशा में सामाजिक सरोकारों को साथ ले प्रवाहित है।

यही है उद्देश्य भी अर्थात् वाचिक,मौलिक ,लिखित रुप से सामाजिक सरोकारों के साथ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्ताँतरित ,हितकारी,संस्कार ,संस्कृति ही साहित्य है।तो अपने भाव सौंदर्य के साथ शब्द अर्थ की विस्तृत व्याख्या करता है।

उद्देश्य या भूमिका---एक वाक्य में कहा जाये तो प्राचीन परंपरा को सहेजना,समझना साहित्य का उद्देश्य हो सकता है।लेकिन मूलरुप से कुरीतियाँ मिटाकर सामाजिक बुराइयों से अलग स्वस्थ ,सुंदर, सामाजिकता की परंपरा ही साहित्य का उद्देश्य है।

सा-सहित,हित्-हितकारी,य-यत्न पूर्वक।यानि समाज के लिये हितकारी यत्नपूर्वक हित सहित जो मानव ,समाज के लिये जीवन को सहज ,सरल बनाये वही कला साहित्य का उद्देएश्य है।

साहित्य में मानव जीवन के सद्विचार ,भाव निहित होते हैं।ऐसे भाव जिनका उद्देश्य जीवन,समाज में व्याप्त कुरुपताओ,रुढ़ियों,दुष्प्रभावों विसंगतियों को को मिटाना है।केवल रस या आनंद प्राप्ति अथवा मनोरंजन मात्र ही साहित्य का उद्देश्य नहीं है।स्वस्थ मन ,दिमाग वाला व्यक्ति हर जगह सौंदर्य और रस खोज लेता है।

साहित्य का उद्देश्य है कि वह  समाज की रूढ़ियों,विसंगतियों को नीति उपदेश के साथ  मित्र ,प्रिय के समान मिष्ट बातों द्वारा कलात्मक,सहज,सरल भावपूर्ण शब्दों में बताये और परिवर्तन के लिये प्रेरित करे।

इसी लिये साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है।जहाँ समाज में उपजी कलुषता ,विसंगतियों,,अपराधों को इंगित कर उनका निराकरण किया जाता है।एक दिशाबोध दिया जाता है।यही साहित्य का उद्देश्य है। फिर चाहे वह आलोचना हो, व्याख्या हो कथा हो काव्य हो हर धारा दर्पणवत् समाज का चेहरा सामने लाता है।

साहित्य मनोरंजन के साथ कल्याण और निर्माण की भावना को भी साथ लेकर चलता है।

फ्रांस की क्रांति,रुस की क्रांति,भारत की क्रांति ..सभी के मूल में साहित्य  का प्रभाव था। जब भी जहाँ भी कुछ क्रांतिकारी परिवर्तन हुये ,साहित्य ही सहयोगी रहा।

जीवन की सड़ी गली परंपराओं,रुढ़ियों,हीनताओं से जीवन को निकालना ही साहित्य का उद्देश्य हमेशा से रहा है।अर्थात्  मनोरंजक तरीके से मानव समाज के हितार्थ ,शुभकारी,लौकिक पारलौकिक मुक्ति ,साहित्य का चरम  उद्देश्य कहा जा सकता है।जो जीवन को प्रभावित करने वाले व्यवहारिक सत्य हैं उन्हें रोचक ढंग से अभिव्यक्त करना और मानव या व्यक्ति अथवा पाठक को उस से परिचित करा के परिवर्तन करना ही साहित्य का उद्देश्य है ।



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