खेल

खेल तो बहुत हैं खेलने को
पर अपनों को अपनो से खेलना ही पसन्द आया।

वक्त की है अजीब दास्तान
एक सा नहीं रहता
जैसा भी हो गुज़र ही है जाता
पाठ कोई न कोई मगर ये छोड़ जाता है।।

गर कोई सबक लिया तो
बुलन्द ये कर जाता है
वरन गोल गोल चक्कर में
बंदा फँसा रह जाता है।।

पहचान व्यक्तित्व की भी हो जाती है
बुरे दौर में धैर्य,
अच्छे समय की विनम्रता
बहुत कुछ बतला जाती है।

जो बदले चाल अपनी घड़ी घड़ी
भरोसेमंद वो नहीं।
जो खेले भावनाओं से
वो अपने नहीं।।

गलत का सिला , गलत करने से मिलता नहीं
व्यवहार का मालिक वो बनता नहीं
फर्क रखे अपने स्तर का जो
रब का हाथ सिर से उसके कभी हटता नही।।










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