नपुंसक पति।

तूने ही भगाया है छोरी को, बता कहाँ है वो नहीं तो मार डालूंगा" रतन सिंह गुस्से से चीख़ रहा था।

मैं नहीं जानती, हज़ारों लोग आते हैं थारी हवेली में, गई होगी किसी गोरे या काले के साथ।" उमा आईने के सामने खड़ी बिंदी लगाते हुए बोली।

रतन सिंह ने लपककर उमा के बाल पकड़े "ज्यादा बन मत, यहाँ वो म्हारी इज्ज़त ले गई साथ में और थारे को श्रृंगार से फुर्सत नहीं, मेरे से कुछ नहीं छुपा, तूने ही भगाया है, बोल किसके साथ गई है।

छुना मत मुझे, अगर श्रृंगार नहीं करूंगी तो थारे मेहमानों का मनोरंजन कौन करेगा और इज्ज़त की बात तो मत ही करना, रतन सिंह,, अपनी पत्नी को दूसरों को परोसने वाला नपुंसक पति इज्ज़त की बात करता है, नामर्द कहीं का।" उमा उसे धकेलकर कमरे से बाहर आ गई।

रतन सिंह ने हाॅल में आकर उसका गला पकड़ लिया "बोल कौन था वो कमीना नहीं तो मार ही डालूंगा।"

"छोड़ दे उसको रतन, ईरान से ख़ास मेहमान आये हैं उनकी खातिरदारी करो।" पीछे से सास ने कहा।

तू तो इतना नपुंसक बन चुका है रतन सिंह की अपनी पत्नी को हाथ लगाने का हक भी नहीं है, क्योंकि मुझे मार दिया तो तू खायेगा क्या, लेकिन इतना समझ ले म्हारी रोज़ी के जीवन में म्हारे नपुंसक पति का साया भी न पड़ेगा, अच्छा हुआ जो भाग गई, हट परे जा रही हूँ अपनी नुमाइश करने।" उमा की आँखों में रतन सिंह की हार की चमक और व्यंग्य भरी मुस्कान थी।

पुरखों की गिरवी हवेली को टूरिस्ट प्लेस बना कर रतन सिंह और उसका परिवार पता नहीं कब इतना धनान्ध हो गया कि अपनी बहु, अपनी अर्धांगिनी को भी उनके मनोरंजन के लिए इस्तेमाल करने लगा, शुरू में उमा ने बहुत विरोध किया मार खाई, लेकिन सास-ससुर देवर सब दानव बने हुए थे, फिर देवरानी आयी तो उस मासूम को भी उसी गर्त में धकेल दिया गया।उमा खुद को न बचा सकी।

कुछ साल बाद उमा को बेटी हुई, गोरा रंग, नीली आंखे और सुनहरे बाल नाम दिया रोज़ी, पर ये स्पष्ट था कि वो रतन सिंह की बेटी नहीं थीं लेकिन कोई उंगली कैसे उठा सकता था क्योंकि गुनहगार तो खुद रतन सिंह और उसका परिवार ही था। रतन सिंह मन में रोज़ी से नफ़रत करता था औऱ उसको भी इसी मनोरंजन के सफेदपोश कारोबार में लगाने का मन बना चुका था।

पर उमा ने ठान लिया कि उसकी बेटी ये नहीं करेगी। उसने गुपचुप तरीके से रोज़ी को पढ़ने अमेरिका भेज दिया। उसकी मौसी के पास औऱ जताया कि वो भाग गई थी किसी के साथ।

मार औऱ अपमान का डर तो कब का निकल चुका था उमा के मन से ,बस रोज़ी की हिफाजत की चिंता थी लेकिन अब उसे बिल्कुल डर नहीं था अपने नपुंसक पति और उसके घर वालों का, वो चली जा रही थी मेहमानखाने में अट्टहास करती रतन सिंह की इज़्ज़त, घमण्ड, औऱ मर्दानगी को कुचलते हुए और उसके पायल का हर घुँघरू रतन सिंह को नपुंसक पति कह कर पुकार रहा था।

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