सभी को नमस्कार, इस समय में आपको जीवन में आने वाली कुछ समस्याओं के बारे में बात करूँगा क्या आपको किसी समय ऐसा महसूस होता है कि आप जो भी करना चाहते हैं वह नहीं कर पाते और जो नहीं करना चाहते या नहीं होना चाहिए वह जाने अनजाने में ना चाहते हुए भी हो जाता है इसके कई कारण हो सकते हैं आप सोचे तो आपके हिसाब से यह ग्रह गोचर, भाग्य दशा और उनके विभिन्न फल- फलादेश एवं आपके कर्म बंधन हो सकते हैं इन सब के समाधान प्रत्येक के / सब के हिसाब से अलग अलग हो सकते हैं किंतु फिर भी कुछ लोगों का यह विचार है कि हम अपने कर्मों का फल जो भी हो प्राप्त करते हैं . कर्म अच्छे भी हो सकते हैं कर्म बुरे भी हो सकते हैं अच्छे कर्मों का फल अच्छा ही मिलता है और बुरे कर्मों का बुरा फल भी हमको भोगना पड़ता है मैं यदि किसी के मार्ग में काँटे डालूंगा तो यह निश्चित है कि काँटे मुझे ही तकलीफ पहुंचाएंगे . जब भी में किसी के साथ अच्छा कर्म करूंगा या भलाई करूंगा तो निश्चित मानना कि यह भलाई भी मेरे साथ ही बंध जाती है और इसका अच्छा फल भी मुझे ही प्राप्त होता है और यह मुझे भी नहीं मालूम कि वह सर्वशक्तिमान परमपिता परमात्मा इसका फल मुझे कहां पर दे देता है यह भी मान्यता है कि यदि कोई भी कर्म बगैर फल की प्राप्ति के लिए किया जाता है तो बंधन के रूप में हमारे साथ नहीं बंधता और उसका अच्छा फल या बुरा फल भी हमको नहीं प्राप्त होता इसी को भगवान श्री कृष्ण ने गीता में निष्काम कर्म की तरफ बढ़ने के लिए हम सब को मार्गदर्शित किया है .यह भी निश्चित है कि यदि कोई भी कर्म किसी भी फल के लिए या किसी को परेशान करने के लिए किया जाता है तो वह हमको बंधन में डालता है और इसको हमको अच्छे या बुरे रूप में भुगतना पड़ता है आज के समय में निष्काम कर्म के बारे में बहुत मुश्किल से ही सोचा जा सकता है क्योंकि इस युग धर्म के अनुसार हर कर्म किसी न किसी भाव या फल के लिए ही किया जाता है और यदि किसी देवता के, देवी के चरणों में या उनके मंदिर में भी हम देखें तो सभी भक्त भगवान से कुछ ना कुछ मांगते हुए दिख जाते हैं और कई दफा तो हमको यह भी सुनने में मिल जाता है कि भक्त भगवान से व्यापारिक सौदेबाजी की तरह सौदा करता दिखाई देता है कि भगवान मेरा यह कार्य करो, मदद कर दो, यह करो ,वह करो, मैं वहां आऊंगा, प्रसाद चढ़ा दूंगा , ब्राह्मणों को भोजन करवा दूंगा या इतने रुपए चढ़ा दूंगा इत्यादि इत्यादि. यह क्या है? क्या हम भगवान से भी सौदेबाजी करने से नहीं चूकते. जब भक्त की भावना भगवान के प्रति ऐसी हो जाती है तथा भक्तों की श्रद्धा भी व्यापार -तोल-मोल हो जाती है तो देव मूर्ति भी भक्तों की प्रार्थना उसके हिसाब से ही सुनती है इसलिए हमारे यहां यह भी कहा गया है कि जैसी रही भावना जैसी प्रभु मूरत तिन देखी तैसी. क्या वह सर्वशक्तिमान हमारे धन का, रुपयों का भूखा है बिल्कुल भी नहीं .यह सब श्रद्धा एवं भावना की बात होती है इसलिए हो सके तो हमको हमारी इस व्यापारिक सोच से मुक्त होकर ही देवालय में जाना चाहिए किंतु इसका कहीं भी यह मतलब नहीं है कि हम को अपनी देव प्रतिमा के प्रति श्रद्धा भक्ति को प्रदर्शित नहीं करना चाहिए. देवालय में हम देव प्रतिमा के समक्ष नमस्कार कर, प्रणाम कर, सिर झुका कर अपनी श्रद्धा और भक्ति दिखा सकते हैं फिर भी यही करनी चाहिए कि यदि हम किसी के साथ अच्छा न कर सके तो उसका बुरा भी नहीं करें क्योंकि यह निश्चित है कि बुराई का फल हम को भुगतना ही पड़ता है और यही बंधन है . हम यह कह सकते हैं कि अच्छे या बुरे कर्म हमको बंधन में डालते हैं और उनका फल हमको निश्चित रूप से भुगतना पड़ता है इसलिए कई दफा हमारे चाहते हुए भी या न चाहते हुए भी वह कुछ घटित हो जाता है जिसकी उम्मीद हमको पहले से नहीं होती है क्योंकि यह हम नहीं जानते क्यों और कैसे समय के चक्र के हिसाब से कौन सा अच्छा फल या बुरा फल हमको कब कहां और कैसे भुगतना पड़ जाए. इसलिए कोशिश यही होनी चाहिए कि हम प्रत्येक कर्म बगैर किसी फल के, निष्काम रुप से करें यदि कोई भी कर्म निष्काम रूप से भी नहीं कर पाए तो हमारी भरसक कोशिश यही होनी चाहिए कि किसी दूसरे प्राणी मात्र के साथ हम किसी भी रूप में मन, कर्म, वचन से कोई भी बुरा कार्य नहीं करें क्योंकि यह परमपिता ही जानता है कि किस वक्त उसने किस प्राणी को किस तरह का फल भुगतने का समय निश्चित किया हुआ है. यह मेरे निजी विचार हैं.इनको यहां तक पढ़ने के लिए आपका कोटि - कोटि धन्यवाद .
राधा माँराधा को अक्सर राधिका भी कहा जाता है, हिन्दू धर्म में विशेषकर वैष्णव सम्प्रदाय में प्रमुख देवी हैं। वह कृष्ण की प्रेमिका और संगी के रूप में चित्रित की जाती हैं।वैष्णव सम्प्रदाय में राधाको भगवान कृष्ण की शक्ति स्वरूपा भी माना जाता है , जो स्त्री रूप मे प्रभु के लीलाओं मे प्रकट होती हैं |राधा में ‘रा’ धातु के बहुत से अर्थ होते हैं. देवी भागवत में इसके बारे में लिखा है कि जिससे समस्त कामनायें, कृष्ण को पाने की कामना तक भी, सिद्ध होती हैं. सामरस उपनिषद में वर्णन आया है कि राधा नाम क्यों पड़ा ?राधा के एक मात्र शब्द से जाने कितने जन्मो के पाप नष्ट हो जाते हैर शब्द का अर्थ है = जन्म-जन्मान्तर के पापो का नाशअ वर्ण का अर्थ है =मृत्यु, गर्भावास,आयु हानि से छुटकाराध वर्ण का अर्थ है =श्याम से मिलनअ वर्ण का अर्थ है =सभी वन्धनो से छुटकाराश्रीराधा के परिवार का परिचयपितामह (दादा)–महीभानुपितामही (दादी)–सुखदापिता–वृषभानुमाता–कीर्तिदाभाई–श्रीदामछोटी बहिन–अनंगमंजरीचाचा–भानु, रत्नभानु एवं सुभानुबुआ–भानुमुद्रानाना–इन्दुनानी–मुखरामामा–भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्तिमौसी–कीर्तिमतीकुल-उपास्य देव–श्रीराधारानी के कुलदेवता भगवान सूर्यदेव हैं।श्रीराधा के प्रिय आभूषणों के नामतिलक–स्मरयन्त्रहार–हरिमनोहरनाक की बुलाक–प्रभाकरीकड़े की जोड़ी (कड़ूला)–चटकारावबाजूबंद–मणिकर्बुरअंगूठी–विपक्षमर्दिनी इस पर ‘श्रीराधा’ नाम गुदा है।रत्नताटंक जोड़ी–रोचनकरधनी (कमरपेटी)–कांचनचित्रांगीनूपुर–रत्नगोपुर (इनकी मधुर झंकार ही श्रीकृष्ण का मन मोह लेती थी)मणि–सौभाग्यमणि (यह मणि सूर्य और चन्द्र दोनों के समान कान्तियुक्त थी। इसका नाम स्यमन्तकमणि भी है)वस्त्र–श्रीराधा को दो वस्त्र अत्यन्त प्रिय थे। १. मेघाम्बर–मेघ की कान्ति के समान यह वस्त्र श्रीराधा को अत्यन्त प्रिय है। २. कुरुविन्दनिभ–श्रीराधा का लाल रंग का यह वस्त्र श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय है।दर्पण–मणिबान्धवकंघी–स्वस्तिदासुवर्णशलाका (काजल लगाने के लिए सोने की सलाई)–नर्मदाश्रीराधा को प्रिय सोनजूही का पेड़–तडिद्वल्लीराग–श्रीराधा के प्रिय राग मल्हार व धनाश्री हैं।वीणा–श्रीराधा की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।नृत्य–श्रीराधा के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है।कुण्ड–श्रीराधाकुण्डश्रीराधा की प्रिय गायों के नामसुनन्दा, यमुना, बहुला आदि श्रीराधा की प्रिय गाय हैं।प्रिय हिरनी–रंगिणीप्रिय चकोरी–चारुचंद्रिकाप्रिय हंसिनी–तुण्डीकेरीप्रिय मैना–शुभा और सूक्ष्मधीप्रिय मयूरी–तुण्डिका
गौतम बुद्धगौतम बुद्ध के प्रारंभिक जीवन के बारे में कई रहस्य हैं. कहा जाता है कि 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में वे लुम्बिनी (आज का आधुनिक नेपाल) में पैदा हुए और उनका जन्म का नाम सिद्धार्थ गौतम था और वह एक राजकुमार के रूप में पैदा हुए थे. उनके पिता शुद्धोधन शाक्य राज्य के राजा थे और उनकी मां रानी माया थी और उनके जन्म के बाद शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो गई थी|उन्होंने कम उम्र में अपनी मां को खो दिया और उनके सहृदय पिता ने अपने जवान बेटे को दुनिया के दुख से दूर रखने के लिए अपनी पूरी कोशिश की. जब वो एक छोटे बच्चे थे तो कुछ बुद्धिमान विद्वानों ने भविष्यवाणी की है कि थी वह या तो एक महान राजा या एक प्रसिद्ध आध्यात्मिक नेता बनेंगे|बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोधन और राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में ले लेने के लिए अनुमति दे दी, यद्यपि इसे उन्होंने उतना अच्छा नहीं माना। भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ लोककल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम्‌ भूमिका निभाई। मौर्यकाल तक आते-आते भारत से निकलकर बौद्ध धर्म चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि में फैल चुका था। इन देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है।
कुन्तीकुन्ती महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक है। श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की बहन थीं और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थीं। महाराज कुन्तिभोज से इनके पिता की मित्रता थी, उसके कोई सन्तान नहीं थी, अत: ये कुन्तिभोज के यहाँ गोद आयीं और उन्हीं की पुत्री होने के कारण इनका नाम कुन्ती पड़ा। महाराज पाण्डु के साथ कुन्ती का विवाह हुआ, वे राजपाट छोड़कर वन चले गये। वन में ही कुन्ती को धर्म, इन्द्र, पवन के अंश से युधिष्ठर, अर्जुन, भीम आदि पुत्रों की उत्पत्ति हुई और इनकी सौत माद्री को अश्वनीकुमारों के अंश से नकुल, सहदेव का जन्म हुआ। महाराज पाण्डु का शरीरान्त होने पर माद्री तो उनके साथ सती हो गयी और ये बच्चों की रक्षा के लिये जीवित रह गयीं। इन्होंने पाँचों पुत्रों को अपनी ही कोख से उत्पन्न हुआ माना, कभी स्वप्न में भी उनमें भेदभाव नहीं किया।कुंती एक अद्भुत महिला थीं। पति की मृत्यु के बाद कैसे उन्होंने अपने पुत्रों को हस्तिनापुर में दालिख करवाकर गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा दिलवाई और अंत में उन्हें राज्य का अधिकार दिलवाने के लिए प्रेरित किया यह सब जानना अद्भुत है। एक स्त्री की संघर्ष कहानी में द्रौपदी का नाम तो लिया जाता है लेकिन कुंती की कम ही चर्चा होती है।कुंती अपने महल में आए महात्माओं की सेवा करती थी। एक बार वहां ऋषि दुर्वासा भी पधारे। कुंती की सेवा से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने कहा, 'पुत्री! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हुआ हूं अतः तुझे एक ऐसा मंत्र देता हूं जिसके प्रयोग से तू जिस देवता का स्मरण करेगी वह तत्काल तेरे समक्ष प्रकट होकर तेरी मनोकामना पूर्ण करेगा।' इस तरह कुंती को एक अद्भुत मंत्र मिल गया।कुंती जब विवाह योग्य हुई तो उसका स्वंवर किया गया। स्वयंवर-सभा में कई राजा और राजकुमारों ने भाग लिया जिसमें हस्तिनापुर के राजा पाण्डु भी थे। कुंती ने पाण्डु को जयमाला पहनाकर पति रूप से स्वीकार कर लिया। कुंती का वैवाहिक जीवन सुखमय नहीं रहा। एक बार आखेट के दौरान पाण्डु हिरण समझकर मैथुनरत एक किदंम ऋषि को मार देते हैं। वे ऋषि मरते वक्त पांडु को शाप देते हैं कि तुम भी मेरी तरह मरोगे, जब तुम मैथुनरत रहोगे। इस शाप के चलते पांडु अपनी पत्नियों के साथ जंगल चले जाते हैं। पांडु को दो पत्नियां कुंती और माद्री थीं।एक दिन राजा पांडु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यंत रमणीक था और शीतल-मंद-सुगंधित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पांडु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन में प्रवृत हुए ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई।
भगवान महावीरभगवान महावीर का जन्म लगभग 600 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन क्षत्रियकुण्ड नगर मे हुआ. भगवान महावीर की माता का नाम महारानी त्रिशला और पिता का नाम महाराज सिद्धार्थ थे. भगवान महावीर कई नामो से जाने गए उनके कुछ प्रमुख नाम वर्धमान, महावीर, सन्मति, श्रमण आदि थे. महावीर स्वामी के भाई नंदिवर्धन और बहन सुदर्शना थी. बचपन से ही महावीर तेजस्वी और साहसी थेपिता की मृत्यु के पश्चात 30 वर्ष की आयु में इन्होने सन्यास ग्रहण कर लिया और कठोर तप में लीन हो गये। ऋजुपालिका नदि के तट पर सालवृक्ष के नीचे उन्हे ‘कैवल्य’ ज्ञान (सर्वोच्च ज्ञान) की प्राप्ति हुई जिसके कारण उन्हे ‘केवलिन’ पुकारा गया। इन्द्रियों को वश में करने के कारण ‘जिन’ कहलाये एवं पराक्रम के कारण ‘महावीर’ के नाम से विख्यात हुए।महावीर स्वामी द्वारा बताया गया पंचशील सिद्धांतअहिंसा – कर्म, वाणी, व विचार में किसी भी तरह की अहिंसा न हो, गलती से भी किसी को चोट ना पहुंचाई जाएसत्य – सदा सत्य बोलेंअपरिग्रह – किसी तरह की संपत्ति न रखें, किसी चीज से जुडें नहींअचौर्य (अस्तेय) – कभी चोरी ना करेंब्रह्मचर्य – जैन मुनि भोग विलास से दूर रहें, गृहस्त अपने साथी के प्रति वफादार रहेंवर्द्धमान महावीर ने 12 साल तक मौन तपस्या की और तरह-तरह के कष्ट झेले। अन्त में उन्हें 'केवलज्ञान' प्राप्त हुआ। केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद भगवान महावीर ने जनकल्याण के लिए उपदेश देना शुरू किया। अर्धमागधी भाषा में वे उपदेश करने लगे ताकि जनता उसे भलीभाँति समझ सके।भगवान महावीर ने अपने प्रवचनों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था। भगवान महावीर ने श्रमण और श्रमणी, श्रावक और श्राविका, सबको लेकर चतुर्विध संघ की स्थापना की। उन्होंने कहा- जो जिस अधिकार का हो, वह उसी वर्ग में आकर सम्यक्त्व पाने के लिए आगे बढ़े। जीवन का लक्ष्य है समता पाना। धीरे-धीरे संघ उन्नति करने लगा। देश के भिन्न-भिन्न भागों में घूमकर भगवान महावीर ने अपना पवित्र संदेश फैलाया।भगवान महावीर ने 72 वर्ष की अवस्था में ईसापूर्व 527 में पावापुरी (बिहार) में कार्तिक (आश्विन) कृष्ण अमावस्या को निर्वाण प्राप्त किया। इनके निर्वाण दिवस पर घर-घर दीपक जलाकर दीपावली मनाई जाती है।हमारा जीवन धन्य हो जाए यदि हम भगवान महावीर के इस छोटे से उपदेश का ही सच्चे मन से पालन करने लगें कि संसार के सभी छोटे-बड़े जीव हमारी ही तरह हैं, हमारी आत्मा का ही स्वरूप हैं।
गौतम बुद्ध जी की कहानी।सुख की नींदएक बार गौतम बुद्ध सिंसवा वन में पर्ण-शय्या पर विराजमान थे कि हस्तक आलबक नामक एक शिष्य ने वहाँ आकर उनसे पूछा, ''भंते, कल आप सुखपूर्वक सोए ही होंगे ?"“हाँ, कुमार, कल मैं सुख की नींद सोया।"“किंतु भगवन्‌ ! कल रात तो हिमपात हो रहा था और ठंड भी कड़ाके की थी। आपके पत्तों का आसन तो एकदम पतला है, फिर भी आप कहते हैं कि आप सुख की नींद सोए ?''“अच्छा कुमार, मेरे प्रश्न का उत्तर दो। मान लो, किसी गृहपति के पुत्र का कक्ष वायुरहित और बंद हो, उसके पलंग पर चार अंगुल की पोस्तीन बिछी हो, तकिया कालीन का हो तथा ऊपर वितान हो और सेवा के लिए चार भार्याएँ तत्पर हों, तब क्‍या वह गृहपति पुत्र सुख से सो सकेगा ?”'हाँ भंते, इतनी सुख- सुविधाएँ होने पर भला वह सुख से क्‍यों न सोएगा ? उसे सुख की नींद ही आएगी।'“किंतु कुमार, यदि उस गृहपति-पुत्र को रोग से उत्पन्न होने वाला शारीरिक या मानसिक कष्ट हो, तो क्‍या वह सुख से सोएगा ?''“नहीं भंते, वह सुख से नहीं सो सकेगा।''“और यदि उस गृहपति-पुत्र को द्वेष या मोह से उत्पन्न शारीरिक या मानसिक कष्ट हो, तो क्या वह सुख से सोएगा ?''“नहीं भंते, वह सुख से नहीं सो सकेगा।''“कुमार तथागत की राग, द्वेष और मोह से उत्पन्न होने वाली जलन जड़ मूल से नष्ट हो गई है, इसी कारण सुख की नींद आई थी।"“वास्तव में नींद को अच्छे आस्तरण की आवश्यकता नहीं होती । तुमने यह तो सुना ही होगा कि सूली के ऊपर भी अच्छी नींद आ जाती है। सुखद नींद के लिए चित्त का शांत होना परम आवश्यक है और यदि सुखद आस्तरण हो तब तो बात ही क्या? सुखद नींद के लिए वह निश्चय ही सहायक होगा।''
चंदनबालाचंदनबाला वसुमती चम्पा नगरी की राजकुमारी थी. अचानक हुए एक युद्ध में चंपा के राजा की मृत्यु हो गयी और राजकुमारी बंधक बना ली गयीं. बाद में उन्हें कौशाम्बी नागर में धन्ना सेठ नाम के एक प्रसिद्द व्यापारी ने खरीद लिया और उनका नाम चंदनबाला रख दिया।सेठ राजुकुमारी को अपनी पुत्री की तरह मानता था पर उसकी पत्नी मूला को डर था कि कहीं सेठ राजकुमारी के प्रेम में ना पड़ जाए।एक बार जब सेठ व्यापार के सिलसिले में किसी दूसरे नगर गया हुआ था तब मूला ने राजुमारी का सिर मुंडवा कर बेड़ियों से बंधवा दिया. तीन दिनों तक राजकुमारी को भूखा-प्यासा रखा गया और अंत में उन्हें भुने हुए चने खाने को दिए गए।इधर महावीर कठोर तपस्या में लगे हुए थे और अपने पांच महीने के उपवास को तोड़ने के लिए घर-घर जाकर भिक्षा मांग रहे थे।अब तक उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फ़ैल गयी थी और हर कोई इस तपस्वी को अच्छा से अच्छा भोजन कराने के लिए आतुर था; पर महावीर परिस्थिति और भोजन देखने के बाद आगे बढ़ जाते और कहीं भी अन्न ग्रहण ना करते।लोगों के लिए महावीर का यह व्यवहार समझ से परे था. वे ये नहीं जानते थे कि कुछ ख़ास परिस्थितियां पूर्ण होने पर ही वे अपना उपवास तोड़ते हैं, फिर चाहे ऐसा होने में महीनों ही क्यों न लग जाएं. महावीर मानते थे कि यदि प्रकृति उन्हें जीवित रखना चाहती है तो वह उनका प्रण ज़रूर पूरा करेगी।💡 माना जाता है कि भगवान् महावीर ने अपनी 12 साल की तपस्या में सिर्फ 349 बार ही भोजन ग्रहण किया था।अपनी तपस्या के ग्यारहवें साल में महावीर कौशाम्बी में थे, और उन्होंने प्रण किया था कि वे तभी अन्न ग्रहण करेंगे जब वह किसी राजकुमारी द्वारा दिया जाए –जिसेक बाल मुंडे हुए हों, जो बंधनों में जकड़ी हुई हो, जिसकी आँखों में आंसू हों और वह खाने के लिए भुने हुए चने दे।ऐसी शर्त पूरा होना बहुत कठिन था और महावीर पांच महीने पच्चीस दिनों तक कौशाम्बी में एक घर से दूसरे घर भटकते रहे।चन्दनबाला को भी यह बात पता थी कि महावीर अपना उपवास तोड़ने के लिए घर-घर भिक्षा मांग रहे हैं. और जैसे ही तीन दिनों की यातना के बाद उसे खाने के लिए चने दिए गए, उसके मन में यही विचार आया कि काश वह इसे उस तपस्वी को दान दे पाती और वह उसे स्वीकार कर लेते।वह ऐसा सोच ही रही थी कि महावीर सेठ के द्वार पर भिक्षा मांगते हुए पहुंचे. उन्हें देखते ही चंदनबाला प्रसन्न हो गयी और स्वयम भूख से व्याकुल होने के बावजूद वह उन्हें खाने के लिए चने देने को आतुर हो गयी।महावीर ने देखा कि इस बार खाने को लेकर उनकी सभी शर्तें पूरी हो रही हैं, सिवाय इसके कि चंदनबाला की आँखों में आंसू नहीं थे।महावीर इस बार भी वह अन्न ग्रहण किये बिना वापस जाने लगे. यह देख चंदनबाला को बहुत दुःख हुआ और वह रोने लगी. जब महावीर ने पलट कर उसे देखा तब वह वापस उसके पास गए और चने खाकर अपना प्रसिद्द व्रत तोड़ा।कालांतर में जब भगवान् महावीर को ज्ञान प्राप्त हुआ तब चंदनबाला ही 36000 जैन साध्वियों की पहली प्रमुख बनी।
श्रीमद्भगवद्गीताअध्याय : 3 | श्लोक : 28तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:।गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥ २८॥परन्तु हे महाबाहो! गुण-विभाग और कर्म-विभागकोतत्त्वसे जाननेवाला महापुरुष ‘सम्पूर्ण गुण (ही) गुणोंमें बरत रहे हैं’— ऐसा मानकर (उनमें) आसक्त नहीं होता।**विवेचना **‘तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्म-विभागयो:’—पूर्वश्लोकमें वर्णित ‘अहङ्कारविमूढात्मा’ (अहंकारसे मोहित अन्त:करणवाले पुरुष) से तत्त्वज्ञ महापुरुषको सर्वथा भिन्न और विलक्षण बतानेके लिये यहाँ ‘तु’ पदका प्रयोग हुआ है।सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण प्रकृतिजन्य हैं। इन तीनों गुणोंका कार्य होनेसे सम्पूर्ण सृष्टि त्रिगुणात्मिका है। अत: शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणी, पदार्थ आदि सब गुणमय ही हैं। यही ‘गुण-विभाग’ कहलाता है। इन (शरीरादि)-से होनेवाली क्रिया ‘कर्म-विभाग’ कहलाती है।गुण और कर्म अर्थात् पदार्थ और क्रियाएँ निरन्तर परिवर्तनशील हैं। पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं तथा क्रियाएँ आरम्भ और समाप्त होनेवाली हैं। ऐसा ठीक-ठीक अनुभव करना ही गुण और कर्म-विभागको तत्त्वसे जानना है। चेतन (स्वरूप)-में कभी कोई क्रिया नहीं होती। वह सदा निर्लिप्त, निर्विकार रहता है अर्थात् उसका किसी भी प्राकृत पदार्थ और क्रियासे सम्बन्ध नहीं होता। ऐसा ठीक-ठीक अनुभव करना ही चेतनको तत्त्वसे जानना है।अज्ञानी पुरुष जब इन गुण-विभाग और कर्म-विभागसे अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह बँध जाता है। शास्त्रीय दृष्टिसे तो इस बन्धनका मुख्य कारण ‘अज्ञान’ है, पर साधककी दृष्टिसे ‘राग’ ही मुख्य कारण है। राग ‘अविवेक’ से होता है। विवेक जाग्रत् होनेपर राग नष्ट हो जाता है। यह विवेक मनुष्यमें विशेषरूपसे है। आवश्यकता केवल इस विवेकको महत्त्व देकर जाग्रत् करनेकी है। अत: साधकको (विवेक जाग्रत् करके) विशेषरूपसे रागको ही मिटाना चाहिये।तत्त्वको जाननेकी इच्छा रखनेवाला साधक भी अगर गुण (पदार्थ) और कर्म -(क्रिया-) से अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता, तो वह भी गुण-विभाग और कर्म-विभागको तत्त्वसे जान लेता है। चाहे गुण-विभाग और कर्म-विभागको तत्त्वसे जाने, चाहे ‘स्वयं’-(चेतन स्वरूप-) को तत्त्वसे जाने, दोनोंका परिणाम एक ही होगा।गुण-कर्म-विभागको तत्त्वसे जाननेका उपाय१—शरीरमें रहते हुए भी चेतन-तत्त्व (स्वरूप) सर्वथा अक्रिय और निर्लिप्त रहता है (गीता—तेरहवें अध्यायका इकतीसवाँ श्लोक)। प्रकृतिका कार्य (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि) ‘इदम् ’ (यह) कहा जाता है। ‘इदम् ’ (यह) कभी ‘अहम् ’ (मैं) नहीं होता। जब ‘यह’ (शरीरादि) ‘मैं’ नहीं है, तब ‘यह’ में होनेवाली क्रिया ‘मेरी’ कैसे हुई? तात्पर्य है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सब प्रकृतिके कार्य हैं और ‘स्वयं’ इनसे सर्वथा असम्बद्ध, निर्लिप्त है। अत: इनमें होनेवाली क्रियाओंका कर्ता ‘स्वयं’ कैसे हो सकता है? इस प्रकार अपनेको पदार्थ एवं क्रियाओंसे अलग अनुभव करनेवाला बन्धनमें नहीं पड़ता। सब अवस्थाओंमें ‘नैव किञ्चित्करोमीति’ (गीता ५। ८) ‘मैं’ कुछ भी नहीं करता हूँ’—ऐसा अनुभव करना ही अपनेको क्रियाओंसे अलग जानना अर्थात् अनुभव करना है।२—देखना-सुनना, खाना-पीना आदि सब ‘क्रियाएँ’ हैं और देखने-सुनने आदिके विषय, खाने-पीनेकी सामग्री आदि सब ‘पदार्थ’ हैं। इन क्रियाओं और पदार्थोंको हम इन्द्रियों- (आँख, कान, मुँह आदिसे) जानते हैं। इन्द्रियोंको ‘मन’ से, मनको ‘बुद्धि’ से और बुद्धिको माने हुए ‘अहम् ’-(मैं-पन-) से जानते हैं। यह ‘अहम् ’ भी एक सामान्य प्रकाश- (चेतन-) से प्रकाशित होता है। वह सामान्य प्रकाश ही सबका ज्ञाता, सबका प्रकाशक और सबका आधार है।‘अहम् ’ से परे अपने स्वरूप-(चेतन-) को कैसे जानें? गाढ़ निद्रामें यद्यपि बुद्धि अविद्यामें लीन हो जाती है, फिर भी मनुष्य जागनेपर कहता है कि ‘मैं बहुत सुखसे सोया।’ इस प्रकार जागनेके बाद ‘मैं हूँ’ का अनुभव सबको होता है। इससे सिद्ध होता है कि सुषुप्तिकालमें भी अपनी सत्ता थी। यदि ऐसा न होता तो ‘मैं बहुत सुखसे सोया; मुझे कुछ भी पता नहीं था’—ऐसी स्मृति या ज्ञान नहीं होता। स्मृति अनुभवजन्य होती है. अतएव सबको प्रत्येक अवस्थामें अपनी सत्ताका अखण्ड अनुभव होता है। किसी भी अवस्थामें अपने अभावका (‘मैं’ नहीं हूँ—इसका) अनुभव नहीं होता। जिन्होंने माने हुए ‘अहम् ’-(मैं-पन-) से भी सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूप-( ‘है’-) का बोध कर लिया है, वे ‘तत्त्ववित् ’ कहलाते हैं।अपरिवर्तनशील परमात्मतत्त्वके साथ हमारा स्वत:सिद्ध नित्य सम्बन्ध है। परिवर्तनशील प्रकृतिके साथ हमारा सम्बन्ध वस्तुत: है नहीं, केवल माना हुआ है। प्रकृतिसे माने हुए सम्बन्धको यदि विचारके द्वारा मिटाते हैं तो उसे ‘ज्ञानयोग’ कहते हैं; और यदि वही सम्बन्ध परहितार्थ कर्म करते हुए मिटाते हैं तो उसे ‘कर्मयोग’ कहते हैं। प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही ‘योग’ (परमात्मासे नित्य- सम्बन्धका अनुभव) होता है, अन्यथा केवल ‘ज्ञान’ और ‘कर्म’ ही होता है। अत: प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक परमात्मासे अपने नित्य-सम्बन्धको पहचाननेवाला ही ‘तत्त्ववित् ’ है।‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’—प्रकृतिजन्य गुणोंसे उत्पन्न होनेके कारण शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी ‘गुण’ ही कहलाते हैं और इन्हींसे सम्पूर्ण कर्म होते हैं। अविवेकके कारण अज्ञानी पुरुष इन गुणोंके साथ अपना सम्बन्ध मानकर इनसे होनेवाली क्रियाओंका कर्ता अपनेको मान लेता है२। परन्तु ‘स्वयं’ (सामान्य प्रकाश—चेतन) में अपनी स्वत:सिद्ध स्थितिका अनुभव होनेपर ‘मैं कर्ता हूँ’—ऐसा भाव आ ही नहीं सकता।रेलगाड़ीका इंजन चलता है अर्थात् उसमें क्रिया होती है; परन्तु खींचनेकी शक्ति इंजन और चालकके मिलनेसे आती है। वास्तवमें खींचनेकी शक्ति तो इंजनकी ही है, पर चालकके द्वारा संचालन करनेपर ही वह गन्तव्य स्थानपर पहुँच पाता है। कारण कि इंजनमें इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि नहीं हैं, इसलिये उसे इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिवाले चालक-(मनुष्य-) की जरूरत पड़ती है। परन्तु मनुष्यके पास शरीररूप इंजन भी है और संचालनके लिये इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि भी। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि—ये चारों एक सामान्य प्रकाश- (चेतन-) से सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही कार्य करनेमें समर्थ होते हैं। सामान्य प्रकाश-(ज्ञान-) का प्रतिबिम्ब बुद्धिमें आता है, बुद्धिके ज्ञानको मन ग्रहण करता है, मनके ज्ञानको इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं, और फिर शरीररूप इंजनका संचालन होता है। बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ, शरीर—ये सब-के-सब गुण हैं और इन्हें प्रकाशित करनेवाला अर्थात् इन्हें सत्ता-स्फूर्ति देनेवाला ‘स्वयं’ इन गुणोंसे असम्बद्ध, निर्लिप्त रहता है। अत: वास्तवमें सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं।श्रेष्ठ पुरुषके आचरणोंका सब लोग अनुसरण करते हैं। इसीलिये भगवान् ज्ञानी महापुरुषके द्वारा लोकसंग्रह कैसे होता है—इसका वर्णन करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार वह महापुरुष ‘सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’—ऐसा अनुभव करके उनमें आसक्त नहीं होता, उसी प्रकार साधकको भी वैसा ही मानकर उनमें आसक्त नहीं होना चाहिये।**प्रकृति-पुरुष-सम्बन्धी मार्मिक बात*आकर्षण सदा सजातीयतामें ही होता है; जैसे— कानोंका शब्दमें, त्वचाका स्पर्शमें, नेत्रोंका रूपमें, जिह्वाका रसमें और नासिकाका गन्धमें आकर्षण होता है। इस प्रकार पाँचों इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयोंमें ही आकर्षण होता है। एक इन्द्रियका दूसरी इन्द्रियके विषयमें कभी आकर्षण नहीं होता। तात्पर्य यह है कि एक वस्तुका दूसरी वस्तुके प्रति आकर्षण होनेमें मूल कारण उन दोनोंकी सजातीयता ही है।आकर्षण, प्रवृत्ति एवं प्रवृत्तिकी सिद्धि सजातीयतामें ही होती है। विजातीय वस्तुओंमें न तो आकर्षण होता है, न प्रवृत्ति होती है और न प्रवृत्तिकी सिद्धि ही होती है, इसलिये आकर्षण, प्रवृत्ति और प्रवृत्तिकी सिद्धि सजातीयताके कारण ‘प्रकृति’ में ही होती है; परन्तु पुरुष-(चेतन-) में विजातीय प्रकृति-(जड-) का जो आकर्षण प्रतीत होता है, उसमें भी वास्तवमें प्रकृतिका अंश ही प्रकृतिकी ओर आकॢषत होता है। करने और भोगनेकी क्रिया प्रकृतिमें ही है, पुरुषमें नहीं। पुरुष तो सदा निर्विकार, नित्य, अचल तथा एकरस रहता है।तेरहवें अध्यायके इकतीसवें श्लोकमें भगवान्ने बताया है कि शरीरमें स्थित होनेपर भी पुरुष वस्तुत: न तो कुछ करता है और न लिप्त होता है—‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।’ पुरुष तो केवल ‘प्रकृतिस्थ’ होने अर्थात् प्रकृतिसे तादात्म्य माननेके कारण सुख-दु:खोंके भोक्तृत्वमें हेतु कहा जाता है—‘पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते’ (गीता १३। २०) और ‘पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ् क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ (गीता १३। २१)। तात्पर्य यह है कि यद्यपि सम्पूर्ण क्रियाएँ, क्रियाओंकी सिद्धि और आकर्षण प्रकृतिमें ही होता है, तथापि प्रकृतिसे तादात्म्यके कारण पुरुष ‘मैं सुखी हूँ’, ‘मैं दु:खी हूँ’—ऐसा मानकर भोक्तृत्वमें हेतु बन जाता है। कारण कि सुखी-दु:खी होनेका अनुभव प्रकृति-(जड-) में हो ही नहीं सकता, प्रकृति-(जड-)के बिना केवल पुरुष (चेतन) सुख-दु:खका भोक्ता बन ही नहीं सकता।पुरुषमें प्रकृतिकी परिवर्तनरूप क्रिया या विकार नहीं है; परन्तु उसमें सम्बन्ध मानने अथवा न माननेकी योग्यता तो है ही। वह पत्थरकी तरह जड नहीं, प्रत्युत ज्ञानस्वरूप है। यदि पुरुषमें सम्बन्ध मानने अथवा न माननेकी योग्यता नहीं होती, तो वह प्रकृतिसे अपना सम्बन्ध कैसे मानता? प्रकृतिसे सम्बन्ध मानकर उसकी क्रियाको अपनेमें कैसे मानता? और अपनेमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व कैसे स्वीकार करता? सम्बन्धको मानना अथवा न मानना ‘भाव’ है, ‘क्रिया’ नहीं।पुरुषमें सम्बन्ध जोडऩे अथवा न जोडऩेकी योग्यता तो है, पर क्रिया करनेकी योग्यता उसमें नहीं है। क्रिया करनेकी योग्यता उसीमें होती है, जिसमें परिवर्तन (विकार) होता है। पुरुषमें परिवर्तनका स्वभाव नहीं है, जबकि प्रकृतिमें परिवर्तनका स्वभाव है अर्थात् प्रकृतिमें क्रियाशीलता स्वाभाविक है। इसलिये प्रकृतिसे सम्बन्ध जोडऩेपर ही पुरुष अपनेमें क्रिया मान लेता है—‘कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३। २७)।पुरुषमें कोई परिवर्तन नहीं होता, यह (परिवर्तनका न होना) उसकी कोई अशक्तता या कमी नहीं है, प्रत्युत उसकी महत्ता है। वह निरन्तर एकरस, एकरूप रहनेवाला है। परिवर्तन होना उसका स्वभाव ही नहीं है; जैसे—बर्फमें गरम होनेका स्वभाव या योग्यता नहीं है। परिवर्तनरूप क्रिया होना प्रकृतिका स्वभाव है, पुरुषका नहीं। परन्तु प्रकृतिसे अपना सम्बन्ध न माननेकी इसमें पूरी योग्यता, सामथ्र्य, स्वतन्त्रता है; क्योंकि वास्तवमें प्रकृतिसे सम्बन्ध मूलमें नहीं है।प्रकृतिके अंश शरीरको पुरुष जब अपना स्वरूप मान लेता है, तब प्रकृतिके उस अंशमें (सजातीय प्रकृतिका) आकर्षण, क्रियाएँ और उनके फलकी प्राप्ति होती रहती है। इसीका संकेत यहाँ ‘गुणा: गुणेषु वर्तन्ते’ पदोंसे किया गया है। गुणोंमें अपनी स्थिति मानकर पुरुष (चेतन) सुखी-दु:खी होता रहता है। वास्तवमें सुख-दु:खकी पृथक् सत्ता नहीं है। इसलिये भगवान् गुणोंसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद करनेके लिये विशेष जोर देते हैं।तात्त्विक दृष्टिसे देखा जाय तो सम्बन्ध-विच्छेद पहलेसे (सदासे) ही है। केवल भूलसे सम्बन्ध माना हुआ है। अत: माने हुए सम्बन्धको अस्वीकार करके केवल ‘गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’ इस वास्तविकताको पहचानना है।‘इति मत्वा न सज्जते’—यहाँ ‘मत्वा’ पद ‘जानने’ के अर्थमें आया है। तत्त्वज्ञ महापुरुष प्रकृति (जड) और पुरुष-(चेतन-)को स्वाभाविक ही अलग-अलग जानता है। इसलिये वह प्रकृतिजन्य गुणोंमें आसक्त नहीं होता।भगवान् ‘मत्वा’ पदका प्रयोग करके मानो साधकोंको यह आज्ञा देते हैं कि वे भी प्रकृतिजन्य गुणोंको अलग मानकर उनमें आसक्त न हों।*परिशिष्ट भाव**—जो अहंकारसे मोहित नहीं होता, वह ‘तत्त्ववित् ’ होता है। इस तत्त्ववित् को ही दूसरे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें ‘तत्त्वदर्शी’ कहा है। तत्त्ववित् गुण-विभाग और कर्म-विभागसे अर्थात् पदार्थ और क्रियासे सर्वथा अतीत हो जाता है।जबतक साधकका संसारके साथ सम्बन्ध रहेगा, तबतक वह ‘तत्त्ववित् ’ नहीं हो सकता। कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध रखते हुए कोई संसारको जान ही नहीं सकता। संसारसे सर्वथा अलग होनेपर ही संसारको जान सकते हैं—यह नियम है। इसी तरह परमात्मासे अलग होकर कोई परमात्माको जान ही नहीं सकता। परमात्मासे एक होकर ही परमात्माको जान सकते हैं—यह नियम है। कारण यह है कि वास्तवमें हम संसारसे अलग हैं और परमात्मासे एक हैं। शरीरकी संसारके साथ एकता है, हमारी (स्वयंकी) परमात्माके साथ एकता है.
ॐ सरस्वती मया दृष्ट्वा, वीणा पुस्तक धारणीम् । हंस वाहिनी समायुक्ता मां विद्या दान करोतु में ॐ ।।बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की पूजा करने से बुद्धि और ज्ञान बढ़ता है. बसंत पंचमी दिन स्नान का भी खास महत्व माना जाता है. इस बार बसंत पंचमी की पूजा 30 जनवरी को की जा रही है. बसंत पंचमी आते ही वसंत ऋतु की शुरुआत हो जाती है.बसंत पंचमी का दिन ज्ञान की देवी मां सरस्वती को समर्पित है. इस दिन मां सरस्वती को ज्ञान और वाणी की शक्ति के रूप में पूजा जाता है. मान्यता है कि बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की पूजा करने से बुद्धि और ज्ञान बढ़ता है. बसंत पंचमी दिन स्नान का भी खास महत्व माना जाता है. इस बार बसंत पंचमी की पूजा 30 जनवरी को की जा रही है.बसंत पंचमी को श्री पंचमी, सरस्वती पंचमी, ऋषि पंचमी नामों से भी जाना जाता है. मान्यता है कि इसी दिन मां सरस्वती का जन्म हुआ था. ऋग्वेद के अनुसार ब्रह्मा जी अपनी सृष्टी के सृजन से संतुष्ट नहीं थे. चारों तरफ मौन छाया हुआ था. तब उन्होंने अपने कमण्डल से जल का छिड़काव किया, जिससे हाथ में वीणा लिए एक चतुर्भुजी स्त्री प्रकट हुईं. ब्रह्माजी के आदेश पर देवी ने वीणा पर मधुर सुर छेड़ा जिससे संसार को ध्वनि और वाणी मिली. इसके बाद ब्रह्मा जी ने इस देवी का नाम सरस्वती रखा, जिन्हें शारदा और वीणावादनी के नाम से भी जानते हैं. बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती का पूजन करते हैं.
😇☝🏼क्या सिखाता है भगवान कृष्ण का स्वरूप ?कभी सोचा है भगवान कृष्ण का स्वरूप हमें क्या सिखाता है। क्यों भगवान जंगल में पेड़ के नीचे खड़े बांसुरी बजा रहे हैं, मोरमुकुट पहने, तन पर पीतांबरी, गले में वैजयंती की माला, साथ में राधा, पीछे गाय। कृष्ण की यह छवि हमें क्या प्रेरणा देती है। क्यों कृष्ण का रूप इतना मनोहर लगता है। दरअसल कृष्ण हमें जीवन जीना सिखाते हैं, उनका यह स्वरूप अगर गहराई से समझा जाए तो इसमें हमें सफल जीवन के कई सूत्र मिलते हैं। विद्वानों का मत है कि भगवान विरोधाभास में दिखता है।आइए जानते हैं कृष्ण की छवि के क्या मायने हैं।1. मोर मुकुट - भगवान के मुकुट में मोर का पंख है। यह बताता है कि जीवन में विभिन्न रंग हैं। ये रंग हमारे जीवन के भाव हैं। सुख है तो दुख भी है, सफलता है तो असफलता भी, मिलन है तो बिछोह भी। जीवन इन्हीं रंगों से मिलकर बना है। जीवन से जो मिले उसे माथे लगाकर अंगीकार कर लो। इसलिए मोर मुकुट भगवान के सिर पर है।2. बांसुरी - भगवान बांसुरी बजा रहे हैं, मतलब जीवन में कैसी भी घडी आए हमें घबराना नहीं चाहिए। भीतर से शांति हो तो संगीत जीवन में उतरता है। ऐसे ही अगर भक्ति पानी है तो अपने भीतर शांति कायम करने का प्रयास करें।3. वैजयंती माला - भगवान के गले में वैजयंती माला है, यह कमल के बीजों से बनती है। इसके दो मतलब हैं कलम के बीच सख्त होते हैं, कभी टूटते नहीं, सड़ते नहीं, हमेशा चमकदार बने रहते हैं। भगवान कह रहे हैं जब तक जीवन है तब तक ऐसे रहो जिससे तुम्हें देखकर कोई दुखी न हो। दूसरा यह माला बीज की है और बीज ही है जिसकी मंजिल होती है भूमि। भगवान कहते हैं जमीन से जुड़े रहो, कितने भी बड़े क्यों न बन जाओ, हमेशा अपने अस्तित्व की असलियत के नजदीक रहो।4. पीतांबर - पीला रंग सम्पन्नता का प्रतीक है। भगवान कहते हैं ऐसा पुरुषार्थ करो कि सम्पन्नता खुद आप तक चल कर आए। इससे जीवन में शांति का मार्ग खुलेगा।5. कमरबंद - भगवान ने पीतांबर को ही कमरबंद बना रखा है। इसका अर्थ है हमेशा चुनौतियों के लिए तैयार रहें। धर्म के पक्ष में जब भी कोई कर्म करना पड़े हमेशा तैयार रहें।6. राधा - कृष्ण के साथ राधा भी है। इसका अर्थ है जीवन में स्त्रीयों का महत्व भी है। उन्हें पूर्ण सम्मान दें। वे हमारी बराबरी में रहें, हमसे नीचे नहीं। —